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प्रस्तावना
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श्लोक 1904 योगशास्त्रमें यत्किचित् शब्दपरिवर्तनके साथ श्लोक ७-२३ के रूपमें अवस्थित है। इसी प्रकार अन्य भी कितने ही श्लोक दोनों ग्रन्थों में थोड़े-से परिवर्तनके साथ पाये जाते हैं।
इससे यह स्पष्ट है कि दोनों ग्रन्थों में कितनी अधिक समानता है। विशेषता यह है कि ज्ञानार्णवमें जहाँ विवेचन विस्तृत होकर क्रमविहीन व कुछ अप्रासंगिक चर्चासे गभित रहा है वहाँ योगशास्त्रका विवेचन संक्षिप्त होकर क्रमबद्ध व अप्रासंगिक चर्चासे रहित है । जैसे
१. ज्ञानार्णवमें प्रमुख वर्णनीय ध्यानसे सम्बन्ध जोड़ते हुए यह कहा गया है कि मोक्ष कर्मोंके क्षयसे होता है, वह कर्मोंका क्षय सम्यग्ज्ञानसे सम्भव है, तथा उस सम्यग्ज्ञानका बीज ध्यान है।
इसी अभिप्रायको योगशास्त्र में इस प्रकारसे प्रकट किया गया है-मोक्ष कर्मोंके क्षयसे ही होता है, वह कर्मोका क्षय आत्मज्ञानसे सम्भव है, और वह आत्मज्ञान ध्यानके आश्रयसे सिद्ध होता है। दोनों ग्रन्थगत वह श्लोक इस प्रकार है
मोक्षः कर्मक्षयादेव स सम्यग्ज्ञानजः स्मृतः । ध्यानबीजं मतं तद्धि तस्मात्तद्धितमात्मनः ॥ ज्ञाना. 259 मोक्षः कर्मक्षयादेव स चात्मज्ञानतो भवेत् ।
ध्यानसाध्यं मतं तच्च तद्व्यानं हितमात्मनः ॥ यो. शा. ४-११३ इन दोनों श्लोकोंका प्रथम चरण समान है। द्वितीय चरणमें ज्ञानार्णवकारने जहाँ उस मोक्षका प्रादुर्भाव सामान्य सम्यग्ज्ञानसे प्रकट किया है वहाँ योगशास्त्रके कर्ताने उससे कुछ आगे बढ़कर उसका प्रादुर्भाव आत्मज्ञानसे प्रकट किया है। यह परिवर्तन सम्भवतः योगशास्त्रके कर्ता द्वारा बुद्धिपुरःसर दूरदष्टिसे किया गया है। ज्ञानार्णवकार योगशास्त्रगत 'आत्मज्ञानतः' के स्थानमें 'सम्यग्ज्ञानजः' पाठ परिवर्तित करें, यह अँचता नहीं है। पूर्व कृतिकी अपेक्षा उत्तरकालीन कृतिमें संशोधन अधिक हो सकता है।
२. ज्ञानार्णवमें श्लोक 1380 के द्वारा वाम नाड़ीसे प्रवेश करनेवाली वरुण और महेन्द्र ( पुरन्दर) वायको सिद्धिकर तथा सूर्यमार्गसे (दक्षिण नाड़ीसे ) निकलनेवाली अग्नि व पवन वायुको विनाशका कारण कहा गया है। आगे इसी प्रसंगमें श्लोक 1382 के द्वारा वाम नाड़ीमें विचरण करनेवाली अग्नि व पवन वायको तथा दक्षिण नाड़ीमें विचरण करनेवाली वरुण और इन्द्र इन दोनों वायुओंको भी मध्यम कहा गया है। इन दोनों श्लोकोंके बीच में उपयुक्त श्लोक 1381 में यह कहा गया है कि मण्डलोंमें वायुओंके प्रवेश और निःसरण के कालको जानकर योगी समस्त वस्तुओं-विषयक सब प्रकारकी चेष्टाका उपदेश करता है। इस प्रकारसे इन दोनों श्लोकोंके बीच में स्थित वह श्लोक ( 1381) प्रसंगके अनुरूप नहीं रहा।
इस प्रसंगका निर्वाह योगशास्त्रमें जिस रूपसे किया गया है वह भी ध्यान देने योग्य है। वहाँ दो श्लोकों (५,५९-६०) में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि चन्द्रमार्ग ( वामा नाड़ी ) से प्रवेश करनेवाली इन्द्र ( महेन्द्र ) और वरुण वायु सब सिद्धियोंकी देनेवाली तथा सूर्यमार्ग ( दक्षिण नाड़ी) से निःसरण या प्रवेश करनेवाली वे दोनों वायु मध्यम हैं। दक्षिणसे निकलनेवाली अग्नि और पवन वायु विनाशका कारण तथा ये ही दोनों वायु वाममार्गसे प्रवेश व निःसरण करती हुई मध्यम मानी गयी हैं।
योगशास्त्रकी इस सरल व सुबोध प्रक्रियाको देखते हुए यदि यह सम्भावना की जाती है कि हेमचन्द्र सरिने ज्ञानार्णवके उक्त प्रसंगको देखकर अपने बुद्धिकौशलसे उसे कुछ व्यवस्थित रूप दिया है तो यह अनुचित न होगा।
३. ज्ञानार्णवके श्लोक 1394 में यह सूचना की गयी है कि यदि कोई दूत आकर युद्ध में निरत दो विरोधियों का नाम लेकर उनके मध्य में किसकी विजय होगी, यह पूछता है तो उसके जानकार यदि प्रश्न
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