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________________ प्रस्तावना ५१ पाठ अधिक संगत दिखता है । इसके अतिरिक्त ज्ञानार्णव में 'महताम्' के साथ जो 'अपि' शब्द जुड़ा हुआ है। वह भी कुछ उपयोगी नहीं दिखता, जबकि कालके विशेषणभूत 'महता' के साथ वह उपयोगी अधिक । इससे मेरी यह निश्चित धारणा बन गयी है कि हेमचन्द्र सूरिने ज्ञानार्णवगत 'महतामपि' के स्थानमें बुद्धिपुरस्सर 'महताऽपि ' पाठको परिवर्तित किया है । ५. ज्ञानार्णवमें श्लोक 2022-23 के द्वारा अ सि आ उ सा इन मन्त्राक्षरोंके स्मरणकी प्रेरणा की गयी है । पर वहाँ इनमें इस प्रकार क्रमव्यत्यय हो गया है-अ सिसा आ और उ । योगशास्त्र में उनका क्रम व्यवस्थित रहा है (८,७६-७७) । ज्ञानार्णवमें जहाँ 'साकारं मुखपङ्कजे' पाठ है वहाँ योगशास्त्र में उसके स्थान में 'आकारं वदनाम्बुजे' पाठ है ( ८-७६) । यदि क्रमकी अपेक्षा रखी जाती है तो यही पाठ संगत दिखता है । आगे ज्ञानार्णव में जहाँ 'आकारं कण्ठकञ्जस्थं' पाठ है, वहाँ योगशास्त्र ( ८- ७७) में 'साकारं कण्ठपङ्कजे' पाठ है । आगे ज्ञानार्णवमें श्लोक 2024 का पूर्वार्ध इस प्रकार है - सर्वकल्याणबीजानि बीजान्यन्यान्यपि स्मरेत् । योगशास्त्रमें श्लोक ८-७७ का उत्तरार्ध उसीके समान इस प्रकार है - सर्वकल्याणकारीणि बीजान्यन्यान्यपि स्मरेत् । यहाँ ये कुछ ही उदाहरण दिये गये हैं । इनके अतिरिक्त अन्य भी कितने ही उदाहरण दिये जा सकते हैं । पर इतने मात्रसे यह कल्पनामें आ जाता है कि आचार्य हेमचन्द्रके सामने ज्ञानार्णव रहा है व उन्होंने उसका परिशीलन करके उसमें विवेचित विषयोंके वर्णनमें जहाँ जैसा व जितना आवश्यक समझा परिवर्तन व संशोधन किया है तथा अपने योगशास्त्र में उन्हें स्थान दिया है । ज्ञानार्णवमें श्लोक 2020 के द्वारा जिन संजयन्त आदि मुनियोंका उल्लेख किया गया है तथा योगशास्त्रमें भी श्लोक ८-७४ द्वारा जिन वज्रस्वामी आदिका उल्लेख किया गया है उनका यदि कुछ ऐतिहासिक स्रोत उपलब्ध हो सकता है तो सम्भव है उसके आधारसे इस विषय में कुछ विशेष प्रकाश पड़ सके । यह भी निश्चित है कि इन दोनों ग्रन्थकारोंके समक्ष योगविषयक इतर साहित्य भी प्रचुर मात्रामें रहा है व उसका उपयोग भी उन्होंने अपने-अपने ग्रन्थको रचनामें किया है । इसका संकेत भी दोनों ग्रन्थोंसे मिल जाता है । १. ज्ञानार्णव (१) अथ कैश्चिद्यम-नियमासन. ...... (पृ. ३७३) (२) सुनिर्णीतस्वसिद्धान्तैः प्राणायामः प्रशस्यते । मुनिभिः XXX ॥ ( 1342) (३) त्रिधा लक्षणभेदेन संस्मृतः पूर्वसूरिभिः । ( 1344) ( ४ ) x x x प्राज्ञैः प्रणीतः पवनागमे ॥ ( 1349) (५) XXX तदेवाहुराचार्याः ॥ ( 1420 ) ( ६ ) xxx सूरिभिः समुद्दिष्टम् । (1423) (७) x x x केचित् प्रवदन्ति सूरयोऽत्यर्थम् । (1426) (८) x x x विद्म इति केचित् । (1428) ( ९ ) x x x पुरमितरेणेति केऽप्याहुः ॥ ( 14:38) (१०) षोडशप्रमितः कैश्चिन्निर्णीतो वायुसंक्रमः । (1441) (११) मुनिभिः संजयन्ताद्यैर्विद्या वादात् समुद्धृतम् । ( 2020 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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