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________________ -८२] ३३. संस्थानविचयः 1773 ) द्विगुण द्विगुणाभोगाः प्रावृत्यान्योन्यमास्थिताः । ___सर्वे ते शुभनामानो वलयाकारधारिणः ||८१ 1774 ) मानुषोत्तरशैलेन्द्रमध्यस्थमतिसुन्दरम् । नरक्षेत्रं सरिच्छैलसुराचलविराजितम् ।।८२ 1773) द्विगुणद्विगुणा-सर्वे द्वीपसागराः शुभनामानः । पुनः कीदृशाः। वलयाकृतिधारिणः । इति सूत्रार्थः ।।८१॥ अथ पुनस्तेषां स्वरूपमाह। 1774) मानुषोत्तर–मानुषोत्तरशैलेन्द्रमध्यस्थम् अतिसुन्दरम् । सुराचलविराजितम् । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ।। ८२।। अथ तत्र खण्डानि प्रतिपादयति । योजन विस्तारवाला गोल जम्बूद्वीप स्थित है । उसको चारों ओरसे वेष्टित करके लवणसमुद्र स्थित है। उसका विस्तार दो लाख योजन प्रमाण है। इसको चारों ओरसे वेष्टित द्वीप धातकीखण्ड स्थित है, जिसका विस्तार चार लाख योजन है। उस धातकी खण्डको सब ओरसे घेरकर जो कालोद नामका दूसरा समुद्र स्थित है उसका विस्तार आठ लाख योजन है। इसको वेष्टित करके सोलह लाख योजन विस्तृत पुष्कर द्वीप स्थित है। उसके ठीक बीचोंबीच मानुषोत्तर नामका पर्वत स्थित है, जिससे इस द्वीपके दो विभाग हो गये हैं। इस मानुषोत्तर पर्वतके पूर्वका अढ़ाई द्वीप और दो समुद्ररूप क्षेत्र मनुष्यलोक कहा जाता है। उक्त मानुषोत्तर पर्वतके आगे किसी भी अवस्थामें मनुष्योंका अस्तित्व सम्भव नहीं है। इसी क्रमसे एक दूसरेको वेष्टित करके असंख्यात द्वीप-समुद्र स्थित हैं। सबके अन्तमें स्वयम्भूरमण नामका द्वीप और उसको वेष्टित करके स्वयम्भूरमण नामका अन्तिम समुद्र स्थित है ।।८०॥ _ चूड़ीके आकारसे स्थित वे सब उत्तम नामोंवाले द्वीप-समुद्र विस्तारमें उत्तरोत्तर एक दूसरेसे दूने-दूने होते हुए परस्पर पूर्व के द्वीप व समुद्रको घेरकर स्थित हैं ।।८१॥ मानुषोत्तर पर्वतराजके मध्यमें नदियों, पर्वतों और सुमेरुसे सुशोभित जो अतिशय सुन्दर क्षेत्र है वह मनुष्यलोक है । विशेषार्थ-यद्यपि मनुष्यलोकसे प्रसिद्ध इस क्षेत्र में मनुष्योंके साथ तिर्यचोंका भी सद्भाव पाया जाता है, फिर भी चूँकि उन मनुष्योंका गमनागमन मानुषोत्तर पर्वतके बाह्य भागमें कदापि नहीं पाया जाता है अतएव इसे मन मनुष्यलोक कहा जाता है। उस मानुषोत्तर पर्वतसे आगे स्वयम्भूरमण समुद्र तक चूँ कि तियचोंका ही ( सर्वत्र विचरनेवाले देवोंकी यहाँ विवक्षा नहीं है ) अस्तित्व पाया जाता है, अतएव इस क्षेत्रको तिर्यग्लोक कहा जाता है। विशेष इतना समझना चाहिए कि मानुषोत्तर पर्वतके बाह्य और स्वयम्भूरमण द्वीपके मध्यमें स्थित स्वयंप्रभ पर्वतके पूर्ववर्ती इन असंख्यात द्वीप-समुद्रोंमें उत्पन्न होनेवाले तिर्यंच संज्ञी पंचेन्द्रिय व पल्य प्रमाण आयुवाले होते हैं। वहाँ विकलत्रय व जलचर जीव नहीं होते । वहाँ जघन्य भोगभूमि (सुषम-दुःषमा) की-सी व्यवस्था है ॥८२॥ १. S TJX Y R द्विगुणा द्विगुणा भोगाः। २. MSJX Y R प्रावा', T प्रवृत्त्यान्यान्यं । ३.J वलयाकृति । ४. J°च्छैलं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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