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________________ ५७८ ज्ञानार्णवः [३३.७७ 1769 ) तिलादप्यतिसूक्ष्माणि कृतं खण्डानि निर्दयैः । वपुर्मिलति वेगेन पुनस्तेषां विधेर्वशात् ॥७७ 1770 ) यातनारु शरीरायुर्लेश्यादुःखभयादिकम् । __ वर्धमानं विनिश्चेयमधो ऽधः श्वभ्रभूमिषु ॥७८ 1771 ) मध्यभागस्ततो मध्य आस्ते ऽसौ झल्लरीनिभः । यत्र द्वीपसमुद्राणां व्यवस्था वलयाकृतिः ॥७९ 1772 ) जम्बूद्वीपादयो द्वीपा लवणोदादयो ऽणवाः। स्वयंभूरमणान्तास्ते' प्रत्येकं द्वीपसागराः ॥८० 1769) तिलादपि-निर्दयैः तिलादपि अतिसूक्ष्माणि कृतखण्डानि । पुनस्तेषां वपुः वेगेन मिलति । कस्मात् । विधेर्वशात् । इति सूत्रार्थः ।।७७।। अथ नरकेषु एतत्सर्वं भवतीत्याह। ____1770) यातनारुक-श्वभ्रभूमिषु नरकभूमिषु यातना पीडा। तदादि सर्व वर्धमानं निश्चेयम् । अबोधः अज्ञानमपीति सूत्रार्थः ।।७८।। अथ नरकाणां व्यवस्थानम् आह । ____1771) मध्यभागः-ततो मध्यभागः मध्ये असौ आस्ते। कीदृशः। झल्लरीनिभः । शेष सुगमम् । इति सूत्रार्थः ।।७९|| [ अथ द्वीपसागरानाह। ____1772) जम्बूद्वीपादयः-लवणोदादयः क्षारसमुद्रादयः अर्णवाः समुद्राः। स्वयंभूरमणान्ताः स्वयंभूरमणपर्यन्ताः । इति सूत्रार्थः ।।८०॥ अथ द्वीपानां स्वरूपमाह । नहीं प्राप्त होता है। इसी प्रकार अपरिमित भूखके होनेपर भी उन्हें खानेके लिए तिलके कणके बराबर भी आहार नहीं प्राप्त होता है ।।७।। ___ दुष्ट नारकियोंके द्वारा अन्य नारकियोंका शरीर तिलके दानेसे भी छोटे खण्डोंमें खण्डित । कर दिया जाता है, फिर भी वह कमके वश शीघ्र ही फिरसे मिल जाता है ।।७७|| नीचे-नीचेकी पृथिवियोंमें पहलीकी अपेक्षा दूसरी और दूसरीकी अपेक्षा तीसरी आदि में-वेदना, रोग, शरीरकी ऊँचाई, आयु, लेश्या, दुःख और भय आदि उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होते गये हैं । ७८॥ उपर्युक्त अधोलोकके ऊपर और ऊर्ध्वलोकके मध्यमें मध्यभाग (मध्यलोक ) है जो झालरके समान है। उसके भीतर चूड़ीके आकार में एक दूसरेको वेष्टित करके द्वीप और समुद्र स्थित हैं ॥७९॥ उन द्वीप-समुद्रोंमें स्वयम्भूरमण द्वीप तक जम्बूद्वीपको आदि लेकर असंख्यात द्वीप : और लवणसमुद्रको आदि लेकर स्वयम्भूरमण समुद्र तक असंख्यात समुद्र हैं जो प्रत्येक एक दूसरेको वेष्टित करते हैं। विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि मध्यलोकके ठीक मध्यमें एक लाख २. M युक for रुक। ३. Jच निश्चयं । ४. R मध्ये तत्रास्ते । , FIX Y R कृतखण्डानि । ५. J लवणान्तास्ते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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