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________________ ५६२ [३३.१२ ज्ञानार्णवः 1700 ) उदीर्णानलदीप्तासु निसर्गोष्णासु भूमिषु । मेरुमात्रो ऽप्ययःपिण्डः क्षिप्तः सद्यो विलीयते ।।१२ 1701 ) शीतभूमिष्वपि प्राप्तो मेरुमात्रो ऽपि शीर्यते । शतधासावयःपिण्डः प्राप्य भूमि क्षणान्तरे ॥१३ 1702 ) हिंसास्तेयानृताब्रह्मबहारम्भादिपातकैः। विशन्ति नरकं घोरं प्राणिनो ऽत्यन्तनिर्दयाः ।।१४ 1703 ) मिथ्यात्वाविरतिक्रोधरौद्रध्यानपरायणाः । पतन्ति जन्तवः श्वभ्रे कृष्णलेश्यावशं गताः ॥१५ ___1700) उदीर्णानल-भूमिषु अत्र मेरुमात्रो यः पिण्डः क्षिप्तः सद्यो विलीयते। कीदृशासु भूमिषु । उदीर्णानलदीप्तासु उत्तप्ताग्निप्रज्वलितासु। पुनः कीदृशासु। निसर्गोष्णासु स्वभावोष्णासु। इति सूत्रार्थः ॥१२॥ अथ पुनरेतदेवाह। ___1701) शीतभूमिषु-मेरुमात्रः मेरुप्रमाणः । अयःपिण्डः लोहपिण्डः । शेषं सुगमम् ॥१३॥ अथ पुनरेतदेवाह। 1702) हिंसास्तेय-विशन्ति प्रविशन्ति । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ।।१४।। अथ पुनर्नरकगामिनः प्रतिपादयति । _1703) मिथ्यात्वाविरति-श्वभ्रे नरके । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥१५|| अथ पुनर्नरकमाह। उत्पन्न हुई अग्निसे प्रदीप्त व स्वाभाविक उष्णतासे संयुक्त उन भूमियोंमें यदि मेरु पर्वतके बराबर लोहेका गोला डाला जाये तो वह शीघ्र ही पिघलकर नष्ट हो सकता है ॥१२॥ इसी प्रकार शीत भूमियोंमें भी मेरुके प्रमाण वह लोहेका पिण्ड भूमिको प्राप्त होकर क्षण-भरमें ही सैकड़ों प्रकारसे शीर्ण हो जाता है-गलकर नष्ट हो सकता है ॥१३॥ अतिशय निर्दय प्राणी हिंसा, चोरी, असत्य, अब्रह्म ( मैथुन ) और बहुत आरम्भादि पापोंके कारण भयानक नरकमें प्रवेश करते हैं ॥१४॥ कृष्णलेझ्याके वशीभूत हुए प्राणी मिथ्यात्व, अविरति, क्रोध और रौद्रध्यानमें तत्पर होकर नरकमें पड़ते हैं-नारकी उत्पन्न होते हैं ॥१५।। १.J स तथा for शतधा। २. नन्तरं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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