SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 652
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -१९] ५६३ ३३. संस्थानविचयः 1704 ) असिपत्रवनाकीणे शस्त्रशूलासिसंकुले । नरके ऽत्यन्तदुर्गन्धे वसासृक्कृमिकर्दमे ॥१६ 1705) शिवाश्वव्याघ्रकङ्काढ्य मांसाशिविहगाचिते । वज्रकण्टकसंकीर्ण शूलशाल्मलिदुर्गमे ॥१७ 1706 ) संभूय कुष्टिकामध्ये ऊर्ध्वपादा अधोमुखाः । ततः पतन्ति साक्रन्दं वज्रज्वलनभूतले ॥१८ 1707 ) अयःकण्टककीर्णासु द्रुतलोहाग्निवीथिषु । छिन्नभिन्नविशीर्णाङ्गा उत्पतन्ति पतन्ति च ॥१९ _1704) असिपत्र-कीदृशे नरके । असिपत्रवनाकीर्णे खड्गाकारपत्रव्याप्ते। शस्त्रादि सर्व सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥१६॥ अथ पुनर्नरकमाह । ____1705) शिवाश्व-शिवा क्रोष्ट्री। श्वा कुर्कुरः । व्याघ्राः प्रसिद्धाः । कङ्का बकाः । तदाद्यैः । मांसाशिभिः मांसभक्षकैः विहगैः अञ्चिते युक्ते । वज्रकण्टकसंकीर्णे। पुनः कीदृशे। शूलशाल्मलि: वृक्षविशेषः । तेन दुर्गमे । इति सूत्रार्थः ॥१७॥ अथ पुनर्दुःखमाह। __1706) संभूय-वज्रज्वलनभूतले । ततः पतन्ति साक्रन्दम् । कुष्टिकामध्ये संभूय । कीदृशाः। ऊर्ध्वपादा अधोमुखाः । इति सूत्रार्थः ।।१८।। अथ पुनर्नरकदुःखमाह । ___1707) अयःकण्टक-अयःकण्टककीर्णासु लोहकण्टकव्याप्तासु। ध्रुवं शीघ्र लोहाग्निभिर्युता वीथयो मार्गाः तासु। शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥१९॥ अथ पुनर्नरकदुःखमाह । ___ जो नरक तलवारके समान तीक्ष्ण धारयुक्त पत्तोंवाले वृक्षोंके वनोंसे व्याप्त, शस्त्रस्वरूप शूल और तलवारोंसे परिपूर्ण, अतिशय दुर्गन्धसे सहित; चर्वी, रुधिर और क्षुद्र कीड़ेरूप कीचड़से भरा हुआ; शृगाल, कुत्ता, चीता और कंक पक्षियोंसे व्याप्त; मांसभक्षी पक्षियोंसे परिपूर्ण, वज्रमय काँटोंसे सहित तथा शूल व शाल्मलि वृक्षोंसे दुर्गम है; उसके भीतर अनेक आकारवाली जन्मभूमियोंके मध्यमें उत्पन्न होकर प्राणी ऊपर पाँव और नीचे मुखवाले होते हुए रुदनपूर्वक उन ऊपर स्थित जन्मभूमियोंसे वज्राग्निसे सन्तप्त पृथिवीतलपर गिरते हैं ॥१६-१८॥ वे नारकी लोहमय काटोंसे व्याप्त और पिघले हुए लोहकी अग्निके आधारभूत उन स्थानोंमें गिरते हैं और फिर छिन्न-भिन्न होकर बिखरे हुए शरीरके साथ ऊपर उछलते हैं ॥१९।। १. J कंकाद्यैः । २. L S T विहगांचिते, J गांकितैः, X Y R गान्विते। ३. J संकीर्णः । ४. M N क्रोष्ट्रिका, S T F X R कोष्टिका, J कुट्टिका। ५. N धृत for द्रुत। ६. T भूतले for वीथिषु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy