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________________ ४६ ज्ञानार्णवः आगे वहाँ आज्ञाविचय धर्मध्यानके प्रसंगमें ( 1620 ) यह कहा गया है कि तत्त्वज्ञ मुमुक्षको लक्ष्यके सम्बन्धसे अलक्ष्य, स्थूलसे सूक्ष्म और सालम्बसे निरालम्ब तत्त्वका विचार करना चाहिए। इस प्रकार यहाँ ज्ञानसारके समान निरालम्ब ध्यानपर जोर दिया गया है । ४. ज्ञानसारमें आगे यह कहा गया है कि जिस प्रकार पुरुष क्रमसे पहली-दुसरी आदि सीढ़ियोंपर चढ़ता हुआ अपने अभीष्ट उच्च स्थानको पा लेता है उसी प्रकार योगी स्थूलसे शून्य-निरालम्ब रूपातीत ध्यान-को पा लेता है। इस शून्य ध्यानमें निरत होकर वह समस्त इन्द्रियोंके व्यापार और चित्तके प्रसारसे रहित होता हुआ परस्थान-परम पद-को प्राप्त कर लेता है। राग, द्वेष एवं मोहसे रहित होकर तत्वस्वरूपसे परिणव हुए ज्ञानको ही जिनशासनमें शून्य ध्यान कहा गया है। यह शून्य ध्यान अतीन्द्रिय, मन्त्रतन्त्रसे विहीन एवं ध्येय-धारणासे विमुक्त केवलज्ञानस्वरूप है जो आकाशके समान निर्लेप व सर्वव्यापक है । इस प्रकारसे यहाँ शून्य ध्यानका अच्छा विवेचन किया गया है ( ३८-४५ )। ज्ञानार्णवकी अपेक्षा यह शून्य ध्यान रूपातीतसे भिन्न नहीं है, जिसका विवेचन ज्ञानार्णवमें रूपातीतके नामसे किया गया है ( 2094-2111 )। इसके पूर्व श्लोक 1942-43 में भी यह कहा गया है कि जो योगी क्रमसे लक्ष्यों की ओरसे मनको हटाकर उसे अलक्ष्यमें निश्चल करता है उसके अतीन्द्रिय अन्तर्योति स्फुरायमान होती है। इस अवस्थामें मुनिका समीहित सिद्ध हो जाता है। ५. ज्ञानसारमें गा. ४८ के द्वारा यह निर्देश किया गया है कि यह जो परमात्मतत्त्व है उसे ही गरुड़ और काम तत्त्व कहा गया है, उसे ध्यानविशेष गुरुप्रसादसे जानना चाहिए। . ज्ञानार्णवमें श्लोक 1059 द्वारा यही अभिप्राय प्रकट किया गया है। ज्ञानसारकी वह गाथा इस प्रकार है जं परमप्पयतच्चं तमेव विस-[ विप-] कामतत्तमिह भणियं । झाणविसेसेण पुणो णायव्वं गुरुपसाएण ॥४८ ६. आगे जाकर ज्ञानसारमें नाड़ीचक्रमें-वाम व दक्षिण नाड़ियोंमें रहनेवाले पथिवी आदि पांच तत्त्वोंका निर्देश करते हए उनके प्रवाह, प्रमाण और वर्ण आदिका निरूपण किया गया है। साथ ही उनके द्वारा सूचित शुभाशुभ फलका भी निर्देश किया गया है (५३-५९ )। उनका वर्णन ज्ञानार्णवमें विशदतापूर्वक किया गया है ( 1360-72 )। आगे उनके द्वारा सूचित शुभाशुभ फलका भी विस्तारसे वहाँ विचार किया गया है। विशेषता यह है कि ज्ञानसारमें जहाँ आकाशके साथ पार्थिव आदि पांच मण्डलोंका निर्देश किया गया है ( ५३ ) वहाँ ज्ञानार्णवमें उक्त आकाशके बिना चार ही मण्डलोंका विवेचन किया गया है ( 1360-63 )। इस प्रकार इन दोनों ग्रन्थोंमें विषयविवेचनकी पद्धतिके कुछ भिन्न होनेपर भी अर्थतः जो समानता दृष्टिगोचर होती है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि सम्भवतः ज्ञानार्णवकारके समक्ष यह ज्ञानसार रहा है तथा उसका उपयोग भी उन्होंने अपनी इस कृतिमें किया है । १. लगभग शून्य ध्यानविषयक इसी प्रकारका विवेचन देवसेनाचार्य विरचित आराधनासारमें भी उपलब्ध होता है । तुलनाके लिए उसकी ७१-७८ गाथाएं देखी जा सकती हैं। महर्षि पतंजलि विरचित योगसूत्र में जो समाधिका लक्षण किया गया है वह भी लगभग इसी अभि प्रायको प्रकट करता है। यथा : तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः ।-यो. सू. ३-३ २. ज्ञानार्णवमें सवीर्य ध्यानके प्रसंगमें श्लोक 1490-97 के द्वारा भी इसी अभिप्रायको प्रकट किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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