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प्रस्तावना
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आगे यहाँ पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थके भेदसे तीन प्रकारके अरहन्तके ध्यानकी प्रेरणा करते हुए अपने नाभिकमलमें स्थित सूर्यसमान तेजस्वी अरहन्तके रूपके ध्यानको पिण्डस्थध्यान कहा गया है। इसे पुनः दुहराते हुए यह कहा गया है कि अपने कुर (?) के मध्यमें, मस्तकमें, हृदयमें और कण्ठदेशमें सूर्यके समान तेजस्वी जिनरूपका जो ध्यान किया जाता है उसे पिण्डस्थध्यान जानना चाहिए (१९-२० )।
पदस्थध्यानके प्रसंगमें यह कहा गया है कि सातवें वर्ग ( य-वर्ग) के दूसरे वर्ण (र) से आक्रान्त व शून्य जिसके ऊपर है ऐसे सुसंस्तुत ( या र् से संयुक्त ) आठवें वर्ग ( स-वर्ग) के चौथे वर्ण (ह) को, अर्थात् 'ह' या 'ह्र' को तत्त्व समझो। योगियों के द्वारा उपदिष्ट एक, पाँच, सात और पैंतीस धवल वर्णो के ध्यानको पदस्थध्यान कहा गया है। इस प्रकारसे यहाँ पदस्थध्यानके प्रसंगमें कुछ मन्त्राक्षरों व पदोंके ध्यानकी प्रेरणा की गयी है (२१-२७)।
यहाँ यद्यपि नामनिर्देशके साथ रूपस्थध्यानके स्वरूपको नहीं दिखलाया गया है, फिर भी यहाँ जो यह कहा गया है कि घातिया कर्मोको निर्मूल करके उत्तम अतिशयों व प्रातिहार्यों से संयुक्त होते हुए समवसरणमें विराजमान अरहन्तका ध्यान करना चाहिए, यह रूपस्थध्यानका ही लक्षण है (२८)।
आगे बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा इन तीन जीवभेदों व उनके स्वरूपको प्रकट करते हुए परमात्माके प्रसंगमें जो शून्य (निरालम्ब ) ध्यानकी चर्चा की गयी है उसे रूपातीत ध्यानका ही निरूपण समझना चाहिए (२९-४८)।
पश्चात् यहाँ नाड़ीचक्रमें रहनेवाले पृथिवी, जल, वायु, अग्नि और आकाश इन पाँच तत्त्वोंका निर्देश करते हुए उनके प्रवाह, प्रमाण और वर्ण आदिका निरूपण किया गया है ( ५३-५९ ) ।
इस प्रकारसे यहां जिन विषयोंकी चर्चा की गयी है, वर्णन शैलीके कुछ भिन्न होनेपर भी वे सब विषय ज्ञानार्णवमें चचित हैं। दोनों में अर्थतः कुछ समानता भी है । यथा
१. ज्ञानसारमें पिण्डस्थध्यानके प्रसंगमें अपने नाभिकमलमें स्थित सूर्य समान तेजस्वी अरहन्तके रूपके ध्यानकी प्रेरणा करते हुए उसे पिण्डस्थध्यान कहा गया है (१९-२० )।
ज्ञानार्णवमें इस प्रसंगमें निर्दिष्ट पार्थिवी आदि पांच धारणाओंमें-से आग्नेयी और तत्त्वरूपवती धारणाओंमें यह विषय अंशतः समाविष्ट है।
२. ज्ञानसारमें पदस्थध्यानके प्रसंगमें यह कहा गया है कि सातवें वर्ग ( य-वर्ग ) के दूसरे वर्ण (२) से आक्रान्त तथा शून्य जिसके ऊपर है ऐसे सुसंस्तुत ( अथवा र् से संयुक्त) आठवें वर्ग ( स-वर्ग ) के चौथे अक्षर (ह) को, अर्थात् 'ह' या "ह्र' को तत्त्व जानना चाहिए (२१)।
ज्ञानार्णवमें श्लोक ( 1919) के द्वारा यह निर्देश किया गया है कि ऊपर और नीचे रेफसे संरुद्ध, बिन्दुसे चिह्नित एवं अनाहतसे सहित स-पर-'स' से आगेके अक्षर (ह)-को तत्त्व जानना चाहिए, इसे (ह) मन्त्रराज कहा जाता है। आगे एक श्लोक ( 1934 ) को उद्धृत करते हुए उसके द्वारा यह कहा गया है कि जिसके आदिमें अकार, अन्तमें हकार और मध्यमें रेफ है तथा जो बिन्दुसे सहित है वही परम तत्त्व है, उसे जो जानता है उसे तत्त्ववित् समझना चाहिए।
इस प्रकार 'ह्र' या 'अहं' मन्त्रके विषयमें दोनों ग्रन्थोंमें कुछ समानता दृष्टिगोचर होती है। विशेष स्वरूप उनका मन्त्रशास्त्रसे ज्ञातव्य है।
३. ज्ञानसारमें बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा इन तीन जीवभेदोंके स्वरूपको प्रकट करते हुए परमात्माके प्रसंगमें उसके ध्यानकी प्रेरणा की गयी है। वहाँ यह कहा गया है कि सालम्ब ध्यानको यथार्थ रूप में जानकर उसे छोड़ देना चाहिए और तत्पश्चात् निरालम्ब ध्यानका अभ्यास करना चाहिए (३७)।
ज्ञानार्णवके अन्तर्गत शुद्धोपयोग प्रकरण (१९) में इन जीवभेदोंकी चर्चा विस्तारसे की गयी है।
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