SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानार्णवः अ. श्रावकाचार में इस प्रसंग में एक ही श्लोकके द्वारा यह कह दिया है कि प्रतिमा में परमेष्ठीके स्वरूपको आरोपित कर जो ध्यान किया जाता है उसे रूपस्थध्यान माना जाता है ( १५ - ५४ ) । इसके विषयमें दोनों ग्रन्थकारोंका दृष्टिकोण भिन्न हो रहा है। ५. ज्ञानार्णवमें रुपातीत ध्यानके प्रसंग में यह कहा गया है कि ध्याता जब रूपमें स्थिरचित्त होकर भ्रान्तिसे रहित हो जाता है तब वह अमूर्त, अज और अव्यक्तके ध्यानको प्रारम्भ करता है। जिस ध्यानमें चिदानन्दस्वरूप, शुद्ध, अमूर्त और ज्ञानमय शरीरसे सहित आत्माका आत्माके द्वारा चिन्तन किया जाता है उसका नाम रुपातीत ध्यान है ( 2094-95 ) । अ. धावकाचार में भी यह कहा गया है कि व्याता स्फटिक मणिमें प्रतिबिम्बित जिनरूपके समान जो समस्त कर्मकालिमासे रहित ज्ञानस्वरूप अरूप ( रूपातीत ) सिद्धस्वरूपका ध्यान करता है वह उसके नीरूप व निष्पाप सिद्धस्वरूपकी प्राप्तिका कारण होता है ( १५, ५५-५६ ) । इस प्रकार रुपातीत अथवा अरूप ध्यानके विषय में उपर्युक्त दोनों ग्रन्थोंके कथनमें प्रायः समानता है। पर अमितगति श्रावकाचारमें जहाँ इतने मात्रमें आवश्यक कथन कर दिया गया है वहाँ ज्ञानार्णवमें उसके प्रसंग में अप्रासंगिक चर्चा बहुत की गयी है ( 2080-2111 ) । अ. श्रावकाचार में इन ध्यानोंकी क्रमिक अवस्थापर ध्यान रखा गया है। जैसे— सर्वप्रथम वहां पदस्थ ध्यान में परमेष्ठियों के वाचक वर्ण-पदोंके द्वारा अर्थरूपसे उनमें स्थित परमेष्ठीके ध्यानपर जोर दिया गया है । पश्चात् पिण्डस्थध्यान में पिण्डस्थ — परमोदारिक शरीर में स्थित - अरहन्त के चिन्तनका विधान किया गया है । रूपस्वध्यान में प्रतिमामें आरोपित परमेष्ठीके ध्यानकी प्रेरणा की गयी है। सर्वान्तमें अस्पध्यान में नीरूप सिद्धस्वरूपके ध्यानको महत्त्व दिया गया है । ऐसी कुछ क्रमिक व्यवस्था ज्ञानार्णवमें नहीं रही । अमितगति श्रावकाचार में सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनमें से एक, दो अथवा तीनों को ही न माननेवाले सात मिथ्यादृष्टियोंका निर्देश इस श्लोकके द्वारा किया गया है एकैकं न यो रोचन्ते न परे त्रयः । एकस्त्रीणीति जायन्ते सप्ताप्येते कुदर्शनाः ॥२-२६॥ लगभग इसी अभिप्रायका बोधक यह श्लोक प्रस्तुत ज्ञानार्णवमें भी अवस्थित है एकैकं च त्रिभिर्नेष्टं द्वे द्वे नेष्टे तथा परः । श्रयं न रुचये ऽन्यस्य सप्ते दुर्दृशः स्मृताः ॥ ३१२ ॥ सम्भव है ज्ञानार्णवकारने उक्त अभिप्रायको अमितगति श्रावकाचारगत उपर्युक्त श्लोकसे ग्रहण किया हो। ९. ज्ञानार्णव व ज्ञानसार—पद्यसंह मुनि विरचित ज्ञानसार (वि. सं. १०८६) मा. दि. जैन ग्रन्थ माला द्वारा तस्वानुशासनादि संग्रह में प्रकाशित हो चुका है। वह काफी अशुद्ध छपा है। इससे कुछ गाथाओंके अभिप्रायको अवगत करना भी कठिन हो रहा है । ६३ प्राकृत गाथामय इस ग्रन्थ में ज्ञान के महत्त्वको प्रकट और शुक्ल इन चार ध्यानभेदों का ( करते हुए संक्षेपमें ध्यानकी प्ररूपणा की गयी है। उसमें आतं, रौद्र, धर्म निर्देश करते हुए उन्हें क्रमले तिर्यंच, नरक, व देवगति तथा शिवगति मुक्ति ) का कारण कहा गया है । यहाँ ताम्बूल, कुसुम, लेपन, भूषण व प्रिय पुत्र आदिके चिन्तनको आर्त और बन्धन आदिके चिन्तनको रौद्रध्यान कहा गया है । सूत्र, अर्थ, मार्गणा और महाव्रतोंके चिन्तनको धर्मध्यानका लक्षण तथा संकल्प-विकल्पके अभावको शुक्लध्यानका लक्षण निर्दिष्ट किया गया है। इनमें आतं और रौद्र इन दो दुष्यनोंको छोड़कर धर्म और शुक्लध्यानके चिन्तनको प्रेरणा की गयी है ( १०-१४ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy