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________________ प्रस्तावना ४३ रूपस्थ और अरूप ( रूपातीत ) के भेदसे चार प्रकारका कहा गया है ( १५-३०) तथा इसी क्रमसे उनकी यहाँ प्ररूपणा भी की गयी है। प्रस्तुत ज्ञानाणवके साथ तुलनात्मक दृष्टिसे विचार करनेपर दोनों में यदि कुछ समानता दिखती है तो वह इतनी ही है कि उपर्युक्त जिन पदस्थ-पिण्डस्थ आदि ध्यानोंका वर्णन तत्त्वार्थसूत्र, मूलाचार, भगवतीआराधना, ध्यानशतक और आदिपुराण-जैसे अन्य ग्रन्थोंमें नहीं किया गया है उनका वर्णन इन दोनों ग्रन्थोंमें विस्तारसे किया गया है। पर इनके विषयमें दोनों ग्रन्थकारोंकी विवेचनपद्धति कुछ भिन्न रही है यथा १. ज्ञानर्णवमें जहाँ इन चारों ध्यानोंका उल्लेख पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इस क्रमसे किया गया है (1877) वहाँ अमितगति-श्रावकाचारमें उनका उल्लेख पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और अरूपके क्रमसे किया गया है (१५-३०)। २. ज्ञानार्णवमें पिण्डस्थध्यानके प्रसंगमें पाथिवी, आग्नेयी, श्वसना ( मारुती), वारुणी और तत्त्वरूपवती इन पाँच धारणाओंका विचार किया गया है ( 1878–1608 )। पर अ. श्रावकाचारमें उक्त धारणाओंमें-से कहीं किसी भी धारणाका उल्लेख नहीं किया गया है। अमितगति-श्रावकाचारमें पिण्डस्थ ध्यानके स्वरूपका विचार करते हए यह कहा गया है कि उसमें ध्याता अनन्त ज्ञान-दर्शनादिसे सम्पन्न, आठ प्रातिहार्योंसे विभूषित एवं नो केवललब्धियोंसे युक्त अरहन्तका ध्यान करता है। आगे पिण्डस्थकी सार्थकताको प्रकट करते हुए यह कहा गया है कि जिस ध्यानमें घातिकर्मजनित कलुषतासे रहित पिण्डस्थ-परमौदारिक शरीरमें स्थित-जिनेन्द्रका ध्यान किया जाता है उसे पिण्डस्थध्यान माना गया है। वह पिण्डपंचक-औदारिकादि पाँच शरीरको नष्ट करनेवाला है ( १५, ५०-५३)। ज्ञानार्णवमें इस पिण्डस्थध्यानके प्रसंगमें वणित पर्वोक्त पाथिवी आदि धारणाओंमें-से अन्तिम तत्त्वरूपवती धारणामें सात धातुओंसे रहित, सिंहासनपर आरूढ़ और दिव्य अतिशयों एवं कल्याणमहिमासे युक्त सर्वज्ञकल्प आत्माके चिन्तनकी प्रेरणा की गयी है ( 1904-8)। ३. पदस्थध्यानके प्रसंगमें ज्ञानार्णवमें यह कहा गया है कि योगी जन पवित्र पदोंके आश्रयसे जिस ध्यानको किया करते हैं वह पदस्थध्यान कहलाता है ( 1910 )। अ. श्रावकाचारमें भी इस प्रसंगमें यह कहा गया है कि जो योगी पदस्थका ध्यान करना चाहता है उसे जो पंच नमस्कार आदि पद हैं उनका ध्यान करना चाहिए ( १५-३१)। इस थोड़ी-सी समानताके होनेपर भी उक्त पदस्थध्यानके प्रसंगमें दोनों ग्रन्थोंमें ध्येयस्वरूपसे जो अनेक प्रकारके मन्त्राक्षरों, वर्णों व वाक्योंका विवेचन किया गया है वह अपनी-अपनी शैली में कुछ भिन्न रूपसे किया गया है ( ज्ञाना. 1911-2020; अ. श्रा. १५, ३२-४८)। अन्तमें अ. श्रावकाचारमें इस पदस्थध्यानकी सार्थकताको प्रकट करते हुए यह कहा गया है कि नामपदोंके द्वारा जो परमेष्ठी अभिधेय है वे पदस्थ किये जाते है, क्योंकि अर्थ पदमें व्यवस्थित होता है (१५-४९)। ४. ज्ञानार्णवमें रूपस्थध्यानके प्रसंगमें आर्हन्त्य महिमासे युक्त होकर अनेक विशेषताओंसे विशिष्ट आद्य जिनेन्द्र, सन्मति, सुगत, महावीर और वर्धमान आदि अनेक सार्थक नामोंसे उपलक्षित जिनेन्द्रके स्मरणकी प्रेरणा की गयी है। इसमें कुछ क्रम न रहनेके साथ पुनरुक्ति भी अधिक हुई है ( 2033-79 )। १. बृहद्र्व्यसंग्रह टीकामें उद्धृत इस श्लोकमें उनका क्रम अमितगति-श्रावकाचारके समान रहा है पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनम् । रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरंजनम् ।।-5. द्र. सं. ४८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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