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ज्ञानार्णवः
[३०.१४
1631 ) मदमत्तोद्धतक्षुद्रशासनाशीविषान्तकम् ।
दुरन्तघनमिथ्यात्वध्वान्तधर्मांशुमण्डलम् ॥१४ 1632 ) यत्पवित्रं जगत्यस्मिन् विशुध्यति जगत्त्रयी।
येन तद्धि सतां सेव्यं श्रुतज्ञानं चतुर्विधम् ।।१५ 1633 ) स्थित्युत्पत्तिव्ययोपेतं तृतीयं योगिलोचनम् ।
नयद्वयसमावेशात् साधनादिव्यवस्थितम् ॥१६ 1634 ) निःशेषनयनिक्षेपेनिकषग्रावसंनिभम् ।
स्याद्वादपविनिर्घातभग्नान्यमतभूधरम् ।।१७ 1631) मदमत्तोद्धत-कीदृशं श्रुतम् । मदमत्तोद्धतक्षुद्रशासनाशीविषान्तकं मदमत्तचञ्चलक्षुद्रशासनाशीविषान्तकम् । पुनः कीदृशम् । दुरन्तघनमिथ्यात्वध्वान्तधर्मांशुमण्डलं दुष्टान्तनिबिडमिथ्यात्वात्यन्धकारघर्मांशुमण्डलं सूर्यमण्डलमिति सूत्रार्थः ॥१४॥ अथ श्रुतज्ञानचातुर्विध्यमाह।
___1632) यत्पवित्रं-तत् । हि निश्चिते। सतां सेव्यम् । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥१५॥ अथ तदेवाह।
____1633) स्थित्युत्पत्ति-नयद्वयसमावेशात् निश्चयव्यवहारापेक्षया निश्चयनयात् अनाद्यनन्तव्यवहारापेक्षया सादिः सान्तः । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥१६।। पुनः श्रुतज्ञानमेवाह ।
1634) निःशेष-कीदृशं श्रुतम् । निःशेषनयनिक्षेपनिकषग्रावसंनिभं सर्वनयनिक्षेप एव निकषग्रावा कषपट्टग्रावस्तत्संनिभं सदृशम् । स्याद्वाद एव पविः तस्य निपातेन भग्नः अन्यमतभूधरः तत्त्वमिति सूत्रार्थः ॥१७॥ अथ श्रुतज्ञानमेवाह ।
___ उक्त श्रुत अभिमानसे उन्मत्त अविनीत ऐसे तुच्छ मतरूप आशीविष सोका विनाशक होकर जिस सघन मिथ्यात्वरूप अन्धकारका नाश बड़ी कठिनतासे होता है उसको नष्ट । करनेके लिए सूर्यके मण्डलके समान है ॥१४॥
जो इस लोकमें स्वयं पवित्र है तथा जिसके आश्रयसे तीनों लोकोंके प्राणी विशुद्ध होते हैं वह सत्पुरुषोंके द्वारा आराधन करने योग्य श्रुतज्ञान चार प्रकारका है-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग ।।१५।।।
योगियोंके तीसरे नेत्रके समान-उन्हें वस्तुस्वरूपको नेत्रके समान प्रगट दिखलानेवाला वह श्रुत उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे संयुक्त होकर दोनों नयोंके प्रवेशसे सादि व अनादि व्यवस्थित है-द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा वह उत्पाद-व्ययसे रहित होकर सदा अवस्थित रहनेवाला (अनाद्यनन्त ) और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा उत्पाद व व्ययसे सहित होकर सादिसान्त भी है ॥१६॥
स्याद्वादरूप वनके आघातसे अन्य मतरूप पर्वतोंको भंग करनेवाला वह श्रुतज्ञान समस्त नय और निक्षेपोंके द्वारा वस्तुस्वरूपकी यथार्थताके परीक्षणके लिए शाणोपल (कसौटी) के समान है ॥१७॥
१. J सोद्यनादि, M N नाद्यव्यव। २. P Y नयनिष्पेष ।
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