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________________ -१३ ] ३०. आज्ञाविचयः 1627 ) परिस्फुरति यत्रैतद्विश्वविद्याकदम्बकम् । द्रव्यभावभिदा' तद्धि शब्दार्थज्योतिरग्रिमम् ॥१० 1628 ) अपारमतिगम्भीरं पुण्यतीर्थं पुरातनम् | पूर्वापरविरोधादिकलङ्क परिवर्जितम् ॥११ 1629 ) नयोपनयसंपातगहनं गणिभिः स्तुतम् । 'विचित्रमतिचित्रार्थसंकीर्णं विश्वलोचनम् ॥१२ 1630 ) अनेकपदविन्यासैरङ्गपूर्वैः प्रकीर्णकैः । प्रसृतं "यद्विभात्युच्च रत्नाकर इवापरः ॥ १३ 1627 ) परिस्फुरति - शब्दार्थतेजोमयम् अग्रिमं प्रधानम् । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ पुनः श्रुतज्ञानमाह । 1628) अपारम्—पुण्यतीर्थमिव पुण्यतीर्थम् । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः || ११|| अथ पुनः श्रुतज्ञानमाह । 1629) नयोपनय - नया नैगमाद्याः, उपनया व्यवहारादयः तेषां संपातस्तेन गहनम् । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः || १२ || अथ दृष्टान्तेन श्रुतं स्तौति । 1630) अनेकपद - तत् श्रुतम् उच्चैर्विभाति । अनेकपदविन्यासैः पदस्थापनैरङ्गपूर्वैराचाराङ्गादिभिः पूर्वैश्च प्रकीर्णकैः प्रसृतं विस्तरितरत्नाकर इव । यथा रत्नाकरो रत्नैर्विभाति तथा । इति सूत्रार्थः ||१३|| अथ पुनरपि श्रुतज्ञानमाह । उस श्रुतज्ञानका स्वरूप इस प्रकार है - जिसमें यह समस्त आचारादि विषयक विद्याओं का समूह प्रकाशमान होता है तथा जो शब्द और अर्थरूप ज्योति से सहित है वह श्रेष्ठ श्रुतज्ञान है और वह द्रव्य एवं भावके भेदसे दो प्रकारका है । इनमें शब्दात्मक ( ग्रन्थरचनास्वरूप ) श्रुतको द्रव्यश्रुत और अर्थरूप श्रुतको भावश्रुत जानना चाहिए ॥१०॥ पूर्वापरविरोधादि दोषों से रहित वह प्राचीन श्रुत पवित्र तीर्थस्वरूप है । जिस प्रकार गंगा व समुद्र आदि तीर्थ अपार - विस्तृत किनारोंसे सहित और अतिशय गहरे होते हैं उसी प्रकार यह श्रुत तीर्थ भी अपार -- अपरिमित - और अथाह है ॥ ११ ॥ वह श्रुत द्रव्य-पर्यायार्थिक आदि नयों व सद्भूत असद्भूत आदि उपनयोंसे दुर्भेद्य, गणधरोंके द्वारा प्रशंसित, अनेक रूपोंसे संयुक्त, अनेक प्रकारके पदार्थोंसे व्याप्त - उनका प्रतिपादक - और विश्वका लोचन जैसा है - जिन अदृश्य वस्तुओंका परिज्ञान प्राणियोंको नेत्रके द्वारा नहीं हो सकता है उनका परिज्ञान इस श्रुतज्ञानरूप नेत्रके द्वारा सब ही प्राणियोंको हुआ करता है ||१२|| अनेक पदोंकी रचनायुक्त बारह अंगों, चौदह पूर्वी और सामायिक चतुर्विंशति आदि अनेक प्रकीर्णक ग्रन्थोंसे विस्तृत वह विशाल श्रुत दूसरे समुद्रके समान प्रतीत होता है || १३ || ३. J गणिविश्रुतम् । ४ SJXYR विचित्रमपि । १. Y द्रव्यभावा द्विधा । ५. J तद् for यद् । ६. Jain Education International ५३९ २. SF संघात । MN परं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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