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________________ ५३४ ज्ञानार्णवः [२९.१००1612 ) मुच्येताधीतशास्त्रो ऽपि नात्मेति कलयन्' वपुः । आत्मन्यात्मानमन्विष्यन् श्रुतशून्यो ऽपि मुच्यते ॥१०० 1613 ) पराधीनसुखास्वादनिर्वेदविशदस्य ते । आत्मैवामृततां गच्छन्नविच्छिन्नं तदिष्यते ॥१०१ 1614 ) यदत्यन्तसुखाद् ज्ञानं तदुःखेनापसर्पति । दुःखैकशरणस्तस्माद्योगी तत्त्वं निरूपयेत् ॥१०२ 1615 ) निखिलभुवनतत्त्वोद्भासनैकप्रदीपं निरुपर्धेिमधिरूढं निर्भरानन्दकाष्ठाम् । परममुनिमनीषोद्भेद्यपर्यन्तंभूतं परिकलय विशुद्धं स्वात्मनात्मानमेव ॥१०३ 1612) मुच्येत-अधीतशास्त्रो ऽप्यात्मा न मुच्येत इति । च वपुः । क्व मुच्येत । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥१००॥ अथ पुनरात्मस्वरूपमाह । _1613) पराधीन-निरन्तरं तत्सुखास्वाद इष्यते । इति सूत्रार्थः ।।१०१॥ अथ सुखज्ञानस्यापि दुःखसाध्यत्वमाह। 1614) यदत्यन्त - यत्सुखज्ञानं समभ्यस्तं "तदज्ञानं दुःखेनापसर्पति गच्छति । तस्मादुःखैकशरणो योगी तत्त्वं परात्मतत्त्वं निरूपयेत् । इति सूत्रार्थः ॥१०२।। आत्मनः स्वरूपमाह । मालिनी। 1615) निखिल-आत्मानम् आत्मना परिकलय जानीहि । कीदृशमात्मानम् । निखिलभुवन शरीरको 'आत्मा' इस प्रकारसे जाननेवाला जीव आगमका पारगामी भी हो तो भी वह मुक्त नहीं हो सकता है तथा इसके विपरीत आत्मामें आत्माको खोजनेवाला जीव विशेष आगमज्ञानसे रहित भी हो तो भी वह मुक्त हो जाता है ॥१००।। , _हे भव्य ! परपदार्थों के आश्रयसे उत्पन्न होनेवाले सुखके अनुभवनसे विरक्त होकर निर्मलताको प्राप्त हो जानेपर अमृतस्वरूपको जन्म-मरणसे अतीत होकर आनन्दमय अवस्थाको प्राप्त होनेवाला तेरा आत्मा ही वह अविच्छिन्न-निरन्तर रहनेवाला-सुख है, ऐसा तू निश्चित जान ॥१०१।। __अतिशय सुखसे जो ज्ञान होता है वह दुखके द्वारा नष्ट हो जाता है। इस कारण जो योगी एकमात्र दुखको ही शरण मानता है उसे आत्मस्वरूपका अवलोकन करना चाहिए । विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि सुखपूर्वक जो ज्ञान प्राप्त किया जाता है वह दुखके उपस्थित होनेपर विलीन हो जाता है। इसलिए परीषह एवं तपश्चरणादिसे उत्पन्न दुखमें स्वस्थ रहकर तत्त्वज्ञानको प्राप्त करना चाहिए। कारण कि दुखसे ही उत्पन्न होनेवाले उस तत्त्व- . ज्ञानको नष्ट करनेवाला फिर कोई नहीं रहेगा ।।१०२॥ हे भव्य ! तू अपने द्वारा अपने उस विशुद्ध आत्माका ही निश्चय कर । जो कि समस्त १. M LS FJ Y R कल्पयन् । २. LS FX Y R स्वमीक्षते । ३. All others except P यदभ्यस्तं सुखा । ४. T निरुपम । ५. J°काढ्यं । ६. L षोद्भूत, F J X Y R भेद । ७. Q पर्यङ्क । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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