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२९. शुद्धोपयोगविचारः 1609 ) अयत्नजनितं मन्य ज्ञानिनां परमं पदम् ।
चदात्मन्यात्मविज्ञानमात्रमेव समीहते ॥९७ 1610 ) स्वप्नदृष्टविनाशे ऽपि यथात्मा न विनश्यति ।
जागरे ऽपि तथा भ्रान्तेरुभयत्राविशेषतः ॥९८ 1611 ) अतीन्द्रियमनिर्देश्यममृत कल्पनाच्युतम् ।
चिदानन्दमयं विद्धि स्वस्मिन्नात्मानमात्मना ।।९९
_____1609) अयत्न-अहं मन्ये । ज्ञानिनां परमं पदम् अयत्नजनितं भवति । चेदात्मनि आत्मविज्ञानमात्रमेव समीहते । इति सूत्रार्थः ॥९७।। अथ स्वप्नजागरणयोरात्मविचारमाह ।
1610) स्वप्नदृष्ट-यथात्मा स्वप्ने दृष्टविनाशो न विनश्यते तथा जागरे ऽपि भ्रान्तेरुभयत्रापि सुप्तजागरयोरविशेषतः । इति सूत्रार्थः ॥९८॥ अथात्मानमेव विचारयति।
1611) अतीन्द्रियम्-विद्धि जानीहि । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ।।९९।। अथ श्रुतवतो कर्ममोचनाभावमाह।
शाश्वतिक मोक्षपदको-प्राप्त कर लेता है कि जिससे फिर कभी लौटना नहीं होता है-सदा वहाँपर ही अवस्थित रहता है ॥२६॥
___ यदि अपने आत्मामें आत्माके केवल विवेकज्ञानमात्रकी ही अभिलाषा करता है तो ज्ञानी जीवोंका उत्कृष्टपद-परमात्मपद-बिना किसी प्रयत्नके ही उत्पन्न होता है, ऐसा मैं मानता हूँ। अभिप्राय यह है कि जिस जीवके भेद विज्ञान हो गया है-जो अन्तरात्मा बन चुका है-उसे परमात्मा बननेके लिए कुछ विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता है ॥२७॥
जिस प्रकार स्वप्नमें देखे गये शरीरादिके विनाशमें आत्मा नष्ट नहीं होता है उसी प्रकार जागृत अवस्था में भी शरीरादिके विनाशके देखे जानेपर भी आत्माका विनाश नहीं होता है, ऐसा समझना चाहिए। कारण यह कि भ्रान्तिकी समानता दोनोंमें है-जिस प्रकार स्वप्नमें देखे गये शरीरादिका विनाश भ्रान्तिसे परिपूर्ण माना जाता है उसी प्रकार जागृत अवस्थामें देखे जानेवाले शरीरादिके विनाशको (मरणादिको) भी भ्रान्तिपूर्ण ही समझना चाहिए ॥९८॥
आत्मा स्वभावतः अतीन्द्रिय-चक्षुरादि इन्द्रियोंसे रहित और उनके द्वारा न देखा जानेवाला, वचनका अविषय (अवाच्य), रूप-रसादिसे रहित, विकल्पातीत (निर्विकल्प ) और चेतन आनन्द स्वरूप है। उसको अपने द्वारा-इन्द्रियों आदिकी अपेक्षासे रहितअपने भीतर ही ( न कि शरीरादिमें ) ग्रहण करना चाहिए ।।९९॥
१. M N P चिदात्म', SJX Y R यदात्म । २. All others except P स्वप्ने दृष्टविनाशो ऽपि।
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