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________________ -१०४ ] २९. शुद्धोपयोगविचारः ર 1616 ) 'इति साधारणं ध्येयं ध्यानयोर्धर्मशुक्लयोः । विशुद्धिः स्वामिभेदेन भेदः सूत्रे निरूपितः ॥ १०४ इति ज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे आचार्य - श्री - शुभचन्द्रविरचिते शुद्धोपयोगविचारप्रकरणम् ||२९|| तत्त्वोद्भासनैकप्रदीपं सर्वजगत्तत्त्वे प्रकाशनैकप्रदीपम् । निर्भरानन्दकाढ्यम्" । " निरुपममधिरूढमारोहितम् । परममुनिमनीषोद्भेदपर्यन्तभूतं * प्रकृष्टमुनीच्छाप्रगटान्तभूतम् । इति सूत्रार्थः ॥ १०३ ॥ अथ ध्यानमुपसंहरति । 1 (1616) इति साधारणं - इति साधारणं ध्येयं ध्यानार्हम् । कयोः । धर्मशुक्लयोः ध्यानयोः । भेदः सूत्रनिरूपितः । केन * । विशुद्धस्वामिभेदेनेति सूत्रार्थः ॥ १०४ ॥ इति श्री - शुभचन्द्राचार्यविरचिते ज्ञानार्णवसूत्रे योगप्रदीपाधिकारे पण्डितनयविलासेन साहपासा-तत्पुत्रसाहटोडर-तत्कुलकमलदिवाकर साहऋषिदास-स्वश्रवणार्थं पण्डितजिनदासोद्यमेन कारापितं शुद्धोपयोगविचारप्रकरणम् ॥२९॥ दिव्यश्रीमनुप्राप्तः पाशाक्षः पुण्ययोगसद्भावात् । तत्पुत्रष्टोडरो जीयात् ऋषिदाससमन्वितः । इति आशीर्वादः ॥ अथात्मनो ज्ञाने ऽपि योगिनो भ्रश्यन्तीत्याह । ५३५ लोकगत पदार्थोंके स्वरूपको प्रगट दिखलाने के लिए अद्वितीय दीपक जैसा उपधि - ( माया(जाल) से रहित, अतिशय आनन्दकी अन्तिम सीमाको प्राप्त और उत्कृष्ट मुनिजन की बुद्धिके द्वारा प्रगट करने योग्य अन्तिम अवधिस्वरूप (जिसका पूर्णतया अनुभव उत्तम मुनिवृन्दको ही होता है ) है || १०३।। इस प्रकार धर्म और शुक्ल इन दो ध्यानोंका ध्येय-ध्यानके योग्य आत्मतत्त्व - समान ही है । उसमें स्वामियोंके भेदसे होनेवाली विशुद्धि विविध प्रकारकी होती है। इस स्वामिभेदकी प्ररूपणा आगम में की गयी है ॥ १०४ ॥ इस प्रकार आचार्य श्री शुभचन्द्र विरचित ज्ञानार्णव योगप्रदीपाधिकार में शुद्धोपयोग प्रकरण समाप्त हुआ ||२९|| १. Y om. । २. N धर्म्य for धर्म । ३. All others except P Q विशुद्धिस्वामि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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