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________________ ५२० ज्ञानार्णवः 1562 ) निर्विकल्पं मनस्तत्त्वं न विकल्पैरभिद्रुतम् । निर्विकल्पमतः कार्यमन्त स्तवप्रसिद्ध ||५० 1563 ) अज्ञानविप्लुतं' चेतः स्वतत्त्वादपवर्तते । विज्ञानवासितं तद्धि पश्यत्यन्तः पुरप्रभुम् ॥५१ 1564 ) मुनेर्यदि मनो मोहाद्रागाद्यैरभिभूयते । तन्नियोज्यात्मनस्तत्त्वे तदैव क्षपति' क्षणात् ॥ ५२ 1565 ) यत्रात्मा रतः काये तस्माद्व्यावर्तितो धिया । चिदानन्दमये रूपे 'युक्तस्तत्प्रीतिमुत्सृजेत् ॥ ५३ 1562) निर्विकल्पं - मनस्तत्त्वं निर्विकल्पं कल्पनारहितं विकल्पैरभिद्रुतं न । अतः कारणात् सम्यक्तत्त्वप्रसिद्धये* मनस्तत्त्वं निर्विकल्पं कार्यम् । इति सूत्रार्थः ॥५०॥ अथ पुनरात्मतत्त्वमाह । [ २९.५० 1563) अज्ञान - अज्ञानविप्लुतं संविद्रुतं चेतः स्वतत्त्वादपवर्तते । हि निश्चितम् । अन्त:पुरप्रभुं परमात्मानं विज्ञानवासितमिति सूत्रार्थः ॥ ५१ ॥ अथ मोहादीनामभावं दर्शयति । 1564) मुनेदि - यदि मुनेः मनो मोहात् रागाद्यैरभिभूयते । आत्मनस्तत्त्वे क्षणात् तानेव * क्षपति । इति सूत्रार्थः ॥ ५२ ॥ अथात्मनि प्रीतियोजनमाह । 1565 ) यत्राजात्मा -यत्र काये अजात्मा रतः । धिया तस्माद् व्यावर्तितः, चिदानन्दमये रूपे योजितः”, प्रीतिमुत्सृजेत् । इति सूत्रार्थः ||१३|| अथ स्वपरमात्मस्वरूपमाह । विकल्पोंसे रहित हुआ मन तत्त्व है - परमात्माका स्वरूप है, किन्तु उन विकल्पोंसे पीड़ित हुआ मन तत्त्व नहीं है । इस कारण अभ्यन्तर तत्त्वको सिद्ध करने के लिए उस मनको विकल्पोंसे रहित करना चाहिए ॥ ५० ॥ अज्ञानसे उपद्रवको प्राप्त हुआ चित्त आत्मतत्त्व से च्युत होता है तथा विवेकज्ञानसे संस्कारित वही चित्त शरीरके भीतर परमात्माको देखता है || ५१ ॥ मोहके वश यदि मुनिका मन रागादिके द्वारा अभिभूत किया जाता है तो मुनि उसे आत्माके स्वरूप में नियुक्त करके उसी समय क्षणभरमें ही उन रागादिकोंको नष्ट कर देता है ॥५२॥ जिस शरीरमें अज्ञानी जीव रत होता है उससे आत्माको बुद्धिपूर्वक हटाकर यदि वह चिदानन्दमय आत्माके स्वरूप में मग्न होता है तो वह शरीरविषयक अनुरागको छोड़ देता है ॥ ५३ ॥ Jain Education International १. All others except P कार्यं सम्यक्तत्त्वस्य सि । २. T वियुतं । ३ X तत्त्वेन प्रवर्तते । ४. QLY तानेव, MNST F X R तान्येव । 4. MLTFY ferafa, S ferà, J R क्षिप्यते । ६. All others except P यत्राज्ञात्मा.... । ७. योजित: प्रीति । For Private & Personal Use Only , www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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