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________________ -५७] २९. शुद्धोपयोगविचारः 1566 ) स्वविभ्रमोद्भवं दुःखं स्वज्ञानेनैव हीयते । तपसापि न तच्छेद्यमात्मविज्ञानवर्जितैः ॥५४ 1567 ) रूपायुर्बलवित्तादि संपत्तिं स्वस्य वाञ्छति । बहिरात्मा च विज्ञानी साक्षात्तेभ्यो ऽपि विच्युतिम् ॥५५ 1568 ) कृत्वाहमतिमन्यत्र बध्नाति स्वं स्वतश्च्युतः। आत्मन्यात्ममतिश्च्युत्वान्यस्माद् ज्ञानी च मुच्यते ॥५६ 1569 ) आत्मानं वेत्त्यविज्ञानी त्रिलिङ्गीसंगतं वपुः । सम्यग्वेदी पुनस्तत्त्वं लिङ्गसंगतिवर्जितम् ॥५७ ___1566) स्वविभ्रमोद्भवं-स्वविभ्रमोद्भवं स्वमिथ्याज्ञानजातं दुःखं स्वज्ञानेनैव हीयते हानि याति । आत्मविज्ञानजिते तपसा तदुःखं न छेद्यम् । इति सूत्रार्थः ॥५४॥ अथ बहिरात्मस्वरूपमाह। 1567) रूपायुर्बल-बहिरात्मा रूपायुर्बलवित्तादिसंपत्ति स्वस्य वाञ्छति । अथ विज्ञानी साक्षात्तेभ्यो ऽपि रूपादिभ्यो विच्युतम् । इति सूत्रार्थः ।।५५।। अथ ज्ञानिनो मोक्षमाह । ___1568) कृत्वाहमतिम्-अहंमतिम् अहंकारं कृत्वा अन्यत्र स्वं स्वतश्च्युतः। आत्मनि आत्ममतिं कृत्वा अन्यस्माद् ज्ञानी विमुच्यते । इति सूत्रार्थः ॥५६॥ अथात्मानमेवाह । ___1569) आत्मानम्-अज्ञानी आत्मानं त्रिलिङ्गीसंगतं वपुः वेत्ति। सम्यग्वेदी पुनस्तत्त्वं लिङ्गातिवजितं रहितम् । इति सूत्रार्थः ।।५७।। अथ योगिनमाह। आत्मस्वरूपको यथार्थ न जाननेके कारण जो दुख उत्पन्न हुआ है वह आत्मस्वरूपके यथार्थ ज्ञानके द्वारा ही नष्ट किया जाता है। जो प्राणी आत्माके ज्ञानसे रहित हैं वे तपके द्वारा भी उस दुखको नष्ट नहीं कर सकते हैं ॥५४॥ ___ बहिरात्मा प्राणी अपने लिए रूप, आयु, बल और धन आदिको चाहता है, परन्तु विवेकी अन्तरात्मा उनसे साक्षात् छुटकारा चाहता है-वह उन्हें छोड़ना चाहता है ॥५५॥ ____ अज्ञानी जीव शरीरादि पर पदार्थों में अहंबुद्धि करके उन्हें अपना मानकर-आत्मस्वरूपसे च्युत होता हुआ अपनेको कर्मसे सम्बद्ध करता है। परन्तु आत्मामें ही आत्मबुद्धि . रखनेवाला-शरीरादिसे आत्माको पृथक् देखनेवाला-ज्ञानी जीव शरीरादि पर पदार्थोंसे च्युत होकर उस कर्मबन्धनसे छुटकारा पा लेता है-मुक्ति प्राप्त कर लेता है ॥५६॥ अज्ञानी बहिरात्मा स्त्री, पुरुष व नपुंसक इन तीन लिंगोंसे संयुक्त शरीरको आत्मा जानता है। परन्तु सम्यग्ज्ञानी अन्तरात्मा अपने आत्मस्वरूपको लिंगके संयोगसे रहितशरीर व तद्गत लिंगभेदसे पृथक्-ही जानता है ।।५७।। १. Y वित्तज्ञाः । २. All others except P Y°रात्माथ । ३. P विच्युतिः, F विच्युतम् । ४. All others except P Q M N°मतिं कृत्वा तस्माद् ज्ञानी विमुच्यते । ५. Q M संवृतं for संगतं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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