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________________ ५१२ [२९.२३ ज्ञानार्णवः 1535 ) अक्षद्वारैर्गलित्वा' मन्त्रिमग्नो गोचरेष्वहम ।। तानासाबाहमित्येतन्न हि सम्यगवेदिषम् ॥२३ 1536 ) बाह्यात्मानमपास्यैवान्तरात्मानं ततस्त्यजेत् । प्रकाशयत्ययं योगः स्वरूपं परमेष्ठिनः ॥२४ 1535) अक्षद्वारैः-अक्षगोचरेषु विषयेषु निमग्नः मज्जितः । अक्षद्वारैरिन्द्रियद्वारैः स्वतश्च्युत्वा। तान् गोचरान् आसाद्य प्राप्य । अहमिति एतन्न स्वस्य गवेषितं विचारितम् । इति सूत्रार्थः ।।२३।। अथ परमात्मनः स्वरूपप्रकरणमाह । 1536) बाह्यात्मानम्-अन्तरात्मा स्वात्मानमपास्यैव ततस्त्यजेत् । अयं योगः परमेष्ठिनः स्वरूपं प्रकाशयति । इति सूत्रार्थः ।।२४॥ अथ पुनरात्मस्वरूपमाह । हुआ स्थित रहता है । इस कारण जो आत्महितके अभिलाषी हैं उन्हें बाह्य विषयोंकी ओरसे इन्द्रियोंको हटाकर उस विपरीत बुद्धिको छोड़ते हुए अभ्यन्तर आत्मस्वरूपमें प्रवेश करना चाहिए ।।२२।। इन इन्द्रिय द्वारोंसे मैं मेरा जो ज्ञायक स्वभाव है उससे भ्रष्ट होकर उन इन्द्रियोंके विषयोंमें ही आसक्त रहा और तब उनको पा करके मैंने 'अहम्' इसको नहीं जाना-मैं कौन हूँ और मेरा निजका क्या स्वरूप है, इसके जाननेका प्रयत्न नहीं किया ॥२३॥ प्रथमतः बाह्य आत्माको छोड़कर तत्पश्चात् अन्तरात्माको भी छोड़ देना चाहिए। इस प्रकारकी यह प्रवृत्ति परमात्माके स्वरूपको प्रकाशित करती है। विशेषार्थ-बाह्य शरीर और तद्गत इन्द्रियोंका नाम बाह्य आत्मा तथा मैं शरीरादिसे भिन्न, राग-द्वेषादिसे रहित, अमूर्तिक, शुद्ध व ज्ञानमय हूँ; इस प्रकारके आत्म विषयक संकल्पका नाम अन्तरात्मा है । इनमें बाह्य आत्मा तो सर्वथा परित्याज्य है ही, साथ ही परमात्मस्वरूपको प्राप्त करनेके लिए अन्तरात्मा-उपर्युक्त आत्मविषयक संकल्प-भी छोड़नेके ही योग्य है। कारण यह कि जब तक संकल्प-विकल्प रहते हैं तब तक निर्विकल्पक ध्यान नहीं हो सकता है और जब निर्विकल्पक ध्यान-आत्मलीनता-नहीं होती है तब तक परमात्मपदकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। उस बाह्य आत्मा और अन्तरात्माका परित्याग किस प्रकारसे किया जा सकता है, इसे क्रमशः आगेके दो श्लोकोंमें स्पष्ट किया गया है ॥२४॥ १. Q M N X प्रच्युत्याशमुखैरन्तर्निमग्नो, LS T अक्षद्वारैः स्वतश्च्युत्वा, F°द्वारैः स्वतः श्रुत्वा, Y प्रच्युतो ऽक्षमुखैरन्त', JR °द्वारैस्ततश्च्युत्वा । २. Q. Y°द्याहमतस्तन्न । ३. All others except P स्यैवमन्तरात्मा तत°। ४. Y योगी। ५. N परमात्मनः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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