SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 600
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -२२] ५११ २९. शुद्धोपयोगविचारः 1532 ) वपुष्यात्मेति विज्ञानं वपुषा घटयत्यमून् । स्वस्मिन्नात्मेति बोधस्तु भिनत्यङ्गा'च्छरीरिणम् ।।२० 1533 ) वपुष्यात्ममतिः सूते बन्धुवित्तादिकल्पनम् । स्वस्य संपदमेतेन मन्वानं मुषितं जगत् ॥२१ 1534 ) तनावात्मेति यो भावः स स्याद्वीजं भवस्थितेः । बहिर्वीताक्षविक्षेपस्तत्यक्त्वान्तर्विशेत्ततः ।।२२ ___1532) वपुष्यात्मेति-वपुषा शरीरेण मां घटयति । वपुषात्मेति विज्ञानं स्वस्मिन्नात्मनि बोधस्तु शरीरिणामङ्गात् विन्दत" जानीतेति सूत्रार्थः ॥२०॥ अथ पुनरेतदेवाह । ___1533) वपुष्यात्म-जगत् मुषितम् । वपुषा आत्ममतिः सूते । किं बन्धुवित्तादिकल्पनम् । एतेन वपुषा संकल्पम् । स्वस्य मन्वन्तरम् । इति सूत्रार्थः ॥२१।। अथैतदेवाह । 1534) तनावात्मेति-तेन कारणेनात्मेति यो भावः भवस्थितेः स्वं स्यात् । बीजं मूलं बहिर्वीताक्षविक्षेपम् । तत् त्यक्त्वा अन्तविशेत् । इति सूत्रार्थः ।।२२॥ अथ पुनस्तत्स्वरूपमाह । _ 'जो शरीर है वही मैं हूँ' इस प्रकार अज्ञानताके वश होकर जो शरीरको आत्मा समझा जाता है उसके कारण वे प्राणी उस शरीरसे संयुक्त ही रहते हैं उनका संसारपरिभ्रमण छूटता नहीं है। किन्तु जो आत्मामें आत्माका निश्चय करते हैं-उस जड़ व मूर्तिक शरीरसे भिन्न अमूर्त एवं चेतन ज्ञानादि गुणोंके पिण्डस्वरूप आत्माको पृथक् ग्रहण करते हैंउनका यह विवेक ज्ञान उनको उस शरीरसे पृथक कर देता है-वे मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं।।२०।। शरीरके विषयमें जो आत्मबुद्धि हुआ करती है वह बन्धु और धनादिकी कल्पनाको उत्पन्न करती है तथा उसके द्वारा सम्पत्तिको अपनी माननेवाला जगत् लूटा जाता है। विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि जो अज्ञानी जीव शरीरको आत्मा मानता है वह उससे सम्बन्ध रखनेवाले चेतन पदार्थों के विषयमें यह मेरा भाई है, यह पिता है, यह मेरी पत्नी है, यह मित्र है, और यह मेरा शत्रु है; इत्यादि कल्पनाको किया करता है। इसी प्रकार उस शरीरके ही सम्बन्धके कारण अचेतन पदार्थों में भी वह यह मेरा महल है, यह मेरा धन है, और यह इतनी मेरी भूमि है; इत्यादि कल्पनाको किया करता है। इस प्रकार इस ममत्वबुद्धिके वशीभूत होकर प्राणी आत्मस्वरूपसे विमुख होता हुआ उन शरीरादि पर वस्तुओंके ही संरक्षण एवं उनकी वृद्धि आदिमें संलग्न रहा करता है। तथा उनमें-से जव किसीका वियोग होता है तब वह उससे अतिशय शोकसन्तप्त होता है। इस प्रकार अपनी ही अज्ञानताके कारण प्राणी दीर्घकाल तक संसारपरिभ्रमणके दुखको सहता है ।।२१।। शरीरमें 'यही आत्मा है' इस प्रकारका जो भाव ( अविवेक ) है वह संसारमें अवस्थानका कारण होता है-इस विपरीत बुद्धिके कारण ही प्राणी संसारमें परिभ्रमण करता १. Q T F त्यङ्गान् शरी', J विन्दत for भिनत्ति, JX R त्यङ्गं शरी। २. All others except P शरीरिणाम् । ३. LTXJ संकल्पमेतेन, स्वसंपादनमेतेन । ४. T तेन चात्मेति । ५. J विक्षेपं । ६. M N विशेषतः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy