SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 602
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -२६ ] २९. शुद्धोपयोगविचारः 1537 ) यद्यद्दृश्यमिदं रूपं तत्तदज्ञं न चान्यथा । ज्ञानवच्च व्यतीताक्षमतः केनात्र वच्म्यहम् ||२६ 1538 ) 'यज्जनैरभिबोध्यो ऽहं यज्जनान् बोधयाम्यहम् । द्विभ्रमपदं यस्मादहं विधुर्त कल्पनः ॥ २६ 1537 ) यद्यद्दृश्यम् - यदि इदं रूपम् अदृश्यं तद्रूपं तदन्यं * तस्मादन्यम् । अन्यथा न च ज्ञानवच्च । पक्षान्तरे । व्यतीताक्षम् अतीन्द्रियम् । अतः कारणात् अत्र जगति केन कारणेनाहं वच्मीति सूत्रार्थः ॥ २५ ॥ अथात्मनो भेदाभावमाह । ५१३ 1538 ) यज्जनैरभि - अहम् आत्मा जनैर्लोकैर्बोध्यः । ज्ञानरूपो ऽहमितीक्षते । अहं जनान् लोकान् बोधयामि । तद्विभ्रमपदं भ्रमस्थानम् । यस्मादहं परमात्मा । विध्वस्तकल्पनः * कल्पनारहितः । इति सूत्रार्थः ||२६|| अथ पुनरपि स्वस्वरूपमाह । जो यह रूप दृश्य है - जो शरीरादि इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण किया जाता है वह जड़ ( चेतनासे शून्य ) है, अन्य प्रकार ( चेतन ) नहीं है । तथा जो ( आत्मा ) ज्ञानवान् हैचेतन व ज्ञाता द्रष्टा है - वह इन्द्रियोंका विषय नहीं है । ऐसी अवस्था में मैं यहाँ किससे किसके (शब्दादि ) द्वारा सम्भाषण करूँ ? विशेषार्थ - अभिप्राय यह है कि जो शरीरादि बाह्य पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं वे तो जड़ हैं, अतः उनके साथ सम्भाषण करना योग्य नहीं है । अब रहा आत्मा, सो वह इन्द्रियोंसे ग्रहण नहीं किया जाता है । ऐसी अवस्थामें उससे भी सम्भाषण कैसे किया जा सकता है ? नहीं किया जा सकता है। ऐसा विचार कर शरीरादि बाह्य पदार्थोंमें ममत्वबुद्धिका परित्याग करना चाहिए ||२५|| मैं दूसरे विद्वानोंके द्वारा प्रबोधित किया जाता हूँ तथा मैं अन्य जनों को प्रतिबोधित करता हूँ, इस प्रकारका जो विकल्प होता है वह विपरीत बुद्धिका स्थान है - अज्ञानता से परिपूर्ण है । इसका कारण यह है कि मैं ( आत्मा ) यथार्थतः इस बोध्य-बोधक भावकी कल्पना से रहित हूँ ॥ विशेषार्थ - यद्यपि यह बोध्य-बोधकभावकी कल्पना शरीरादिसे पृथक् आत्मा के अस्तित्वको मानकर अन्तरात्माके रूपमें ही होती है, फिर भी शुद्ध नयकी अपेक्षा ( यथार्थ में ) चूँकि वह आत्मा उपर्युक्त बोध्य-बोधकभावादिरूप सभी प्रकारके विकल्पों से रहित है, अतएव आत्मस्थितिके आश्रयसे उसे भी यहाँ त्याज्य बतलाया गया है । तात्पर्य यह कि जब तक इस प्रकारका सामर्थ्य आविर्भूत नहीं होता है तब तक व्यवहार के आश्रय से वह अन्तरात्मा भी उपादेय है, किन्तु उस प्रकार के सामर्थ्य ( आत्मबल ) के आविर्भूत हो जानेपर वस्तुतः वह अन्तरात्मा भी हेय ही है। विशिष्ट आत्मबलके अभाव में व्यवहारका आश्रय लेते हुए भी यथार्थ आत्मस्वरूपसे विमुख कभी नहीं होना चाहिए - उसको लक्ष्यमें सदा ही रखना चाहिए ||२६|| Jain Education International १. All others except PM N तत्तदन्यन्न । २. L यद्येतैरपि बोध्यो, STF J X R यज्जनैरपि बोध्यो । ३. M N यज्जनं । ४. LT F विध्वस्त । ५. S T F J X Y R कल्मषः । ६५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy