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________________ [२८.४ ज्ञानार्णवः 1473 ) आत्मानमेव पश्यामि नियाज्ञानजं तमः । प्लोषयामि तथात्युग्रं कर्मेन्धनसमुत्करम् ॥४ 1474 ) प्रबलध्यानवज्रेण दुरितद्रुमसंक्षयम् । तथा कुर्मो यथा दत्ते न पुनर्भवसंभवम् ॥५ 1475 ) जन्मज्वरसमुद्भूतमहामूर्तिचक्षुषा । रत्नत्रयमयः साक्षान्मोक्षमार्गों न वीक्षितः ॥६ 1476 ) "मयात्मापि न विज्ञातो विश्वलोकैकलोचनः । अविद्याविषमग्राहदन्तचर्वितचेतसा ।।७ 141) ___1473 ) आत्मानमेव-आत्मानमेव शुद्धचैतन्यावस्थं पश्यामि । अज्ञानजं तमः निर्धूय दूरीकृत्य । तथापि कर्मेन्धनसमुत्करं समूहम् उग्रं प्लोषयामि भस्मीकरिष्यामि। इति सूत्रार्थः ॥४॥ अथ पुनरेतदेवाह। 1474 ) प्रबलध्यान-दुरितद्रमसंक्षयं पापानोकहनाशं तथा कुर्मः । केन। प्रबलध्यानवज्रेण । यथा पुनर्भवसंभवं न दत्ते । इति सूत्रार्थः ।।५।। अथ मोक्षमार्गावीक्षणे हेतुमाह । 1475) जन्मज्वर-जन्मज्वरसमुद्भूतमहामूर्छान्धचक्षुषा । सुगमम् । पुरुषेण साक्षान्मोक्षमार्गो न वोक्षितो विलोकितः। कीदृशः। स्वविज्ञानोद्भवः* निजविशिष्टज्ञानजनितः । इति सूत्रार्थः ॥६॥ अथात्मनः परिज्ञानमाह। 1476) मयात्मापि-मया अविद्याविषमग्राहदन्तचर्वितचेतसा मिथ्याज्ञानदुष्टनाहो जीवविशेषस्तस्य दन्तैश्चवितं चेतो यस्य स तेन नात्मा विज्ञातः। कीदृश आत्मा। विश्वलोकैकलोचनः जगल्लोकाद्वितीयनेत्रः । इति सूत्रार्थः ॥७॥ अथात्मा विषयविजित इत्याह । इस समय मैं अज्ञानसे उत्पन्न हुए अन्धकारको ( अज्ञानरूप अन्धकारको) नष्ट करके आत्माको ही देख रहा हूँ। अब मैं तीव्र कर्मरूप इंधनके समूहको इस प्रकारसे जला डालता हूँ कि जिससे वह फिर कभी दुख नहीं दे सके ॥४|| मैं प्रबल ध्यानरूप वज्रके द्वारा पापरूप वृक्षका क्षय इस प्रकारसे कर देता हूँ कि जिस प्रकारसे वह फिरसे संसार परिभ्रमणजन्य दुखको न दे सके ।।५।। अभी तक मैं संसाररूप ज्वरसे उत्पन्न हुई बड़ी भारी मूर्खासे नेत्रोंके पीड़ित रहनेके कारण रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्गको प्रत्यक्षमें नहीं देख सका था ॥६॥ समस्त लोकके देखने में समर्थ ऐसे अनुपम ज्ञानरूप नेत्रसे संयुक्त होकर भी मैं अज्ञानरूप भयानक ग्राह (हिंस्र जलजन्तु ) के द्वारा चित्त चलाये जानेके कारण अभी तक अपनेआपको भी नहीं देख सका था ॥७॥ १. एप्रोषयामि । २. L S T F K X R मून्धि । ३. All others except P स्व ( Y सु) विज्ञानोद्भवः साक्षा। ४.Qमार्गानवी । ५. Y interchanges Nos 7-81 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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