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________________ XXVIII [सवीर्यध्यानम् ] 1470 ) अनन्तगुणराजीवबन्धुरप्यत्र वञ्चितः। अहो भवमहाकक्षे प्रागहं कर्मवैरिभिः ॥१ 1471 ) स्वविभ्रमसमुद्भतै रागाद्यतुलबन्धनैः । बद्धो विडम्बितः कालमनन्तं जन्मदुर्गमे ॥२ 1472 ) अद्य रागज्वरोत्तीणों मोहनिद्रार्धं निर्गता । ततः कर्मरिपुं हन्मि ध्याननिस्त्रिंशधारया ॥३ 1470 ) अनन्तगुण-अहो इत्याश्चर्ये। भवमहाकक्षे भवाटव्यां प्राक् पूर्वम् अहं कर्मवैरिभिर्वञ्चितः। कीदृशः। अत्र संसारे अनन्तगुणराजीवबन्धुरपि विज्ञानाद्यनन्तगुणसूर्यो ऽपि । इति सूत्रार्थः ।।१।। अथैतदेवाह। ____1471 ) स्वविभ्रम-रागाद्यतुलबन्धनैर्बद्धो ऽनन्तं कालं जन्मदुर्गमे विलम्बितः प्रस्तावाद् भ्रमितः । कीदृशैः । स्वविभ्रमसमुद्भूतैः आत्ममिथ्याज्ञानजातैः । इति सूत्रार्थः ॥२॥ अथ पुनानस्वरूपमाह। 1472 ) अद्य राग-ध्याननिस्त्रिशधारया कर्मरिपुं हन्मि। शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥३।। अथैतदेवाह। ध्यानके अभिमुख हुआ मुनि विचार करता है-खेद है कि मैं अनन्त गुणोंरूप कमलोंका बन्धु-अनन्तज्ञानादि अपरिमित गुणोंरूप कमलोंके विकसित करने में सूर्यके समान तेजस्वी होकर भी यहाँ संसाररूप महावनमें कर्मरूप शत्रुओंके द्वारा पहले बहुत ठगा गया हूँ ॥१॥ ___मैं अपनी ही अज्ञानतासे उत्पन्न हुए राग-द्वेषादिरूप अनुपम ( दृढ़ ) बन्धनोंसे बँधकर अनन्त कालतक इस संसाररूप दुर्गम स्थानमें दुखित रहा हूँ ॥२॥ - आज मैं रागरूप ज्वरसे छुटकारा पा चुका हूँ तथा मेरी मोहरूपी निद्रा भी आज निकल चुकी है । इसलिए अब मैं ध्यानरूप खगकी धारसे उस कर्मरूप शत्रुको नष्ट कर देता हूँ ॥३॥ १.Qविलम्बितः, Y बद्धवा विडम्बितं। २. Qआद्यराग । ३. M N L T F KXY ज्वरो नष्टो, QS R ज्वरो जीर्णो। ४. QM X Y निद्रा विनिर्गता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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