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________________ -१३९] २६. प्राणायामः ४८५ 1449 ) मधुकरपतङ्गपत्रिषु तथाण्डजेषु' मृगशरीरेषु । संचरति जातलक्ष्यस्त्वनन्यचित्तो वशी धीरः ॥१३६ 1450 ) नरतुरगकरिशरीरे क्रमेण संचरति निःसरत्येव । पुस्तोपलरूपेषु च यदृच्छया संक्रमं कुयोत् ।।१३७ 1451 ) इति परपुरप्रवेशाभ्यासोत्थसमाधिपरमसामर्थ्यात् । विचरति यदृच्छयासौ मुक्त इवात्यन्तनिर्लेपः ॥१३८॥ अथवा1452 ) कौतुकमात्रफलो ऽयं पुरप्रवेशो महाप्रयासेन । सिध्यति न वा कथंचिन्महतामपि कालयोगेन ॥१३९ 1449 ) मधुकर-वशी धीरः अनन्यचित्तः एकचित्तः जातलक्ष्यः संचरति । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥१३६।। अथ पुनरपि वायोः स्वरूपमाह । 1450 ) नरतुरग-वायुः नरतुरगकरिशरीरे क्रमेण संचरति वा निःसरति । पुस्तोपलरूपेषु । च पक्षान्तरे। चित्रलिखितेषु पुस्तोपलेषु रूपेषु यथाक्रमं कुर्यादिति सूत्रार्थः ॥१३७॥ अथैव मुक्तो भवतीत्याह। _1451 ) इति पर असौ योगी यदृच्छया विचरति । मुक्त इव अत्यन्तनिर्लेपः निरञ्जनः । इति अमुना प्रकारेण। परपुरप्रवेश-परशरीरप्रवेशेन अभ्यासोत्थसमं समस्तम् अधिसामर्थ्य ततस्तस्मात् । इति सूत्रार्थः ॥१३८।। अथवा परशरीरस्यासाध्यत्वमाह । अथवा । ___1452 ) कौतुकमात्र-अथवा* पक्षान्तरे। अयं परपुरप्रवेशः परशरीरप्रवेश: महाप्रयासेन तत्पश्चात् पूर्वोक्त अभ्याससे सिद्ध हो जानेपर जितेन्द्रिय एवं धीर-वीर योगी एकाग्रचित्त होकर भ्रमर, पतंगा व पक्षियोंके शरीरमें, अण्डज प्राणियोंके शरीरमें तथा मृगोंके शरीरमें वेधको करता है ।।१३६॥ फिर क्रमसे वह योगी मनुष्य, घोड़ा और हाथीके शरीरमें संचार करता है और निकलता है । इस प्रकारसे उसे लेप्यनिर्मित व पाषाणनिर्मित मूर्तियों में भी इच्छानुसार संचार करना चाहिए ॥१३७॥ इस प्रकार दूसरोंके शरीरके भीतर प्रवेश करनेके अभ्याससे उत्पन्न हुई समाधिके उत्कृष्ट सामर्थ्यसे वह योगीमुक्त जीवके समान अतिशय निर्लेप होता हुआ इच्छानुसार विचरण करता है ।।१३८।। ____ अथवा, इस पुरप्रवेशका दूसरेके शरीरमें प्रवेश करनेका फल केवल कौतूहल ही हैइसके अतिरिक्त अन्य कोई उसका कल्याणकारक फल नहीं है । उक्त पुरप्रवेश कालके योगसे १. M N L S T Y तथाण्डजेष्वेष, K तथाण्डजे, X R तथाणुज्येष्ठेषु । २.४ पत्रिकायेषु। ३. S K X R'नन्यचेतो। ४. PM L F अथवा। ५. M L S T KXY R परपुर। ६. T°मपि च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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