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________________ ४८२ ज्ञानार्णवः [२६.१२४1437) अथ नाभिपुण्डरीकाच्छनैः शनैर्हृदयकमलनालेन । निःसारयति समीरं पुनः प्रवेशयति सोद्योगम् ॥१२४ 14:38 ) नाडीशुद्धिं कुरुते दहनपुरं दिनकरस्य मार्गेण । निष्क्रामद्विशदिन्दोः पुरमितरेणेति के ऽप्याहुः ॥१२५ 1439 ) इति नाडिकाविशुद्धौ परिकलिताभ्यासकौशलो योगी । आत्मेच्छयैवै घटयति पुटयोः पवनं क्षणार्धेन ॥१२६ 1440 ) एकस्यामयमास्ते कालं नाडीयुगद्वयं सार्धम् । तामुत्सृज्य ततो ऽन्यामधितिष्ठति नाडिकामनिलः ॥१२७ निरन्तरम् । अनलसमनसा आलस्यरहितचित्तेन । प्रवेशनिष्क्रमणं कार्यम् । इति सूत्रार्थः ।।१२३।। अथ पुनरेतदेवाह। 1437 ) अथ नाभि-अथ नाभिपुण्डरीकात् समीरं वायुं हृदयनालेन शनैः शनैर्मन्दं मन्दं निःसारयति । पुनः कीदृशम् । सोद्योगं सयत्नम् । प्रवेशयति । इति सूत्रार्थः ॥१२४।। अथ नाडीशुद्धयुपायमाह। 1438 ) नाडीशुद्धिम्-दहनपुरमग्नितत्त्वं दिनकरस्थमार्गेण सूर्यस्वरेण नाडीशुद्धिं कुरुते। निष्क्रामत् इन्दोः पुरं चन्द्रमार्गेण विशत् । इति के ऽप्याहुराचार्याः ।।१२५।। अथ नाडीशुद्धिकार्यमाह। 1439 ) इति नाडिका-नाडिकाशुद्धौ जायमानायां परिकलिताभ्यासकौशलो योगी। आत्मेच्छयैव क्षणार्धेन पुटयो सिकाद्वारयोः क्षणार्धन पवनं घटयति । इति सूत्रार्थः ।।१२६।। अथ नाडीसंक्रममाह। 1440 ) एकस्यामयम्-एकस्यां नाडिकायां नाडीयुगद्वयं कालमास्ते तिष्ठत्ययम् । सार्धं ततो आलस्यको दूर करके-एकाग्रतापूर्वक निरन्तर उसके बार-बार प्रवेश करने और बाहर । निकलनेका विचार करना चाहिए ॥१२३॥ पश्चात् नाभिकमलसे हृदयरूप कमलके नालके द्वारा वह प्रयत्नपूर्वक वायुको बाहर निकालता है और फिर भीतर प्रविष्ट कराता है ।।१२४॥ अग्निपुर सूर्यके मार्गसे निकलकर व प्रवेश करके तथा वरुणपुर दूसरे मार्गसेचन्द्रके मार्गसे-निकलकर व प्रवेश करके नाडीकी शुद्धिको करता है, ऐसा कितने ही अन्य आचार्य कहते हैं ।।१२५।। ___ इस प्रकार नाडीकी शुद्धिके हो जानेपर जो योगी वायुके अभ्यास में निपुणताको प्राप्तकर चुका है वह आधे क्षणमें ही पवनको अपनी इच्छाके अनुसार दोनों नासिकापुटोंके भीतर घटित करता है-उसका इच्छानुसार वहाँ संचालन कर सकता है ॥१२६॥ __ यह पवन एक नाडीमें अढ़ाई नाली युग ( मुहूर्त ) प्रमाण काल तक रहता है। तत्पश्चात् वह उसे छोड़कर दूसरी नाडीके भीतर अधिष्ठित होता है ॥१२७।। १. S विशुद्ध, K X Y R विशुद्धि । २. N°च्छयेव । ३. M N पटयोः । ४. P युगल । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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