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________________ ४८१ -१२३ ] २६. प्राणायामः 1433 ) रेचयति ततः शीघ्र पतङ्गमार्गेण भासुराकारम् ।। ज्वालाकलापकलितं स्फुलिङ्गमालाकराक्रान्तम् ॥१२० 1434 ) तरलतडिदुग्रवेगं धूमशिखावर्तरुद्धदिक्चक्रम् । गच्छन्तं गगनतले दुर्धष देवदैत्यानाम् ॥१२१ 1435 ) शरदिन्दुधामधवलं गगनतलान्मन्दमन्दमवतीर्णम् । क्षरदमृतमिव सुधांशोः पूरयति पथा पुनः पुरतः ॥१२२ 1436 ) आनीय नाभिकमलं निवेश्य तस्मिन् पुनः पुनश्चैवम् । अनलसमनसा कार्य प्रवेशनिष्क्रमणमनवरतम् ॥१२३ 1433 ) रेचयति-ततो नाभिकमलात् रेचयति शीघ्रम् । केन। पतङ्गमार्गेण सूर्यमार्गेण । कीदृशम् । भासुराकारं सुगमम् । ज्वालाकलापे कलितं, प्रसिद्धम् । पुनः कीदृशम् । स्फुलिङ्गमाला'कराक्रान्तम् । कराः किरणाः । इति सूत्रार्थः ॥१२०॥ अथ पुनस्तस्यैव स्वरूपमाह । ____1434 ) तरल-पूनः कीदशम्। तरलतडिद्ग्रवेगम्। पूनः कीदशम्। धमशिखावर्तरुद्धदिक्चक्रं धूमशिखाया आवर्तः भ्रमः तेन रुद्धं दिक्चक्रं येन तत्तथा। पुनः कीदृशम् । गगनतले आकाशतले गच्छन्तम् । पुनः कीदृशम् । देवदैत्यानां दुर्धर्षं दुःसहनीयम् । इति सूत्रार्थः ।।१२१॥ अथ पुनरेतदेवाह । ___1435 ) शरदिन्दु-यथा पुनः पुरतः पूरयति। कीदृशम् । शरदिन्दुधामधवलं शरत्कालीनचन्द्रसदृशम् । पुनः कीदृशम् । गगनतलादवतीर्णम् उत्तरितम् । इवोत्प्रेक्षते । सुधांशोः चन्द्रस्यामृतमिव क्षरत् । इति सूत्रार्थः ।।१२२।। अथैतदेवाह। 1436 ) आनीय-आनीय नाभिकमलम् । तस्मिन् नाभिकमले । पुनः पुनश्चैव। अनवरतं तत्पश्चात् ज्वालाओंके समूहसे वेष्टित और अग्निकणोंकी पंक्तियोंकी किरणोंसे व्याप्त उस चमकते हुए 'ह' को शीघ्र ही सूर्यके मार्ग (दक्षिण नासिकाछिद्र ) से बाहर निकालता है। पश्चात् धुएँकी शिखाओंके घेरेसे दिशामण्डलको रोककर चंचल बिजलीके समान तीव्र वेगसे आकाशतलमें जाते हुए देवों व दैत्योंके द्वारा वशमें न हो सकनेवाले, शरत्कालीन चन्द्रमाकी चाँदनीके समान धवल और फिर आकाशतलसे धीरे-धीरे नीचे उतरते हुए मानो अमृतकी ही वर्षा करनेवाले उक्त वर्ण (हँ ) को चन्द्रमाके मार्ग (वाम नासिकाछिद्र) से पूर्ण करता है-उसे पुनः नाभिकमलमें प्रविष्ट कराता है। विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि तत्पश्चात् योगीको ऐसा चिन्तन करना चाहिए कि वह 'हँ, दाहिनी ओरके नासिकाछिद्रसे बाहर निकलकर अग्निकी ज्वालाओं और कणोंसे वेष्टित होता हुआ तीव्र वेगसे आकाशमें जा रहा है। पश्चात् वह उस आकाशतलसे धीरे-धीरे नीचे उतरकर बायीं ओरके नासिका छिद्रसे पुनः उस नाभिकमलके भीतर प्रविष्ट हो रहा है, ऐसा विचार करना चाहिए ॥१२०-२२॥ इस प्रकारसे उसे लाकर और नाभिकमलके ऊपर स्थापित करके उसके विषयमें मनसे १.S R निःसरण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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