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और निर्मलीकरण के लिए मारुती, संक्षेपमें उनका कुछ स्वरूप भी प्रकट पार्श्वनाथ के ध्यानसे पाश्र्वनाथ हुआ करता हुआ महामुद्रा, महामन्त्र एवं धारणाओंको धारण करता है । है ( २०१-२) ।
ज्ञानार्णवः
तैजसी और आप्या ( वारुणी ) इन तीन धारणाओंका निर्देश करते हुए किया गया है ( १८३-८७ ) । आगे पुन: वहाँ यह कहा गया है कि मन्त्री — मन्त्रशास्त्रका ज्ञाता योगी – शरीरकी सकलीकरण क्रियाको महामण्डलका आश्रय लेता है तथा तैजसी आदि ( मारुती व आप्या ) इस प्रकार से वह शीघ्र ही उदय ग्रहोंके निग्रह आदिको करता
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इस परिस्थितिमें ऐसा प्रतीत होता है कि ज्ञानार्णवकारने सम्भवतः तस्यानुशासन में उपर्युक्त पारणाओंका संकेत पाकर अपने ज्ञानार्णवमें उन्हें कुछ स्पष्ट व विस्तृत किया है ।
४. तत्त्वानुशासनमें यह निर्देश किया गया है कि जो ध्याता गुरुके उपदेशसे निरन्तर ध्यानका अभ्यास करता है वह धारणाके बलसे ध्यान प्रत्ययोंको देखता है (८७)। आगे पुनः इस प्रसंग में यह कहा गया है कि समाधिका आश्रय लेनेवाला घ्याता जैसे-जैसे समाधि में स्थितिको प्राप्त करता जायेगा वैसे-वैसे उसके समाधिप्रत्यय प्रकट होते जायेंगे (१७९) ।
ज्ञानार्णव में इन ध्यान- प्रत्ययोंका निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि नेत्रयुगल व कर्णयुगल आदि कुछ नियत स्थानों में मनके विश्रान्त होनेपर लक्ष्यको विस्तृत करनेवाले मुनिके स्वात्मसंवेदन-से बहुत-से ध्यान प्रत्यय उत्पन्न होते हैं (1468-69)
इस प्रकार यहाँ जो मनकी स्थिरता अथवा स्वात्मस्थितिसे उत्पन्न होनेवाले ध्यान प्रत्ययोंका निर्देश किया गया है वह निश्चित ही तत्वानुशासन के उपर्युक्त कथनसे प्रभावित दिखता है।
५. तत्त्वानुशासन में कहा गया है कि यह जो अन्यसे विभक्त आत्माका अवलोकन है वह धर्म्य और शुक्ल इन दोनों ही ध्यानोंका समान ध्येय है, उन दोनोंमें जो कुछ भेद है वह विशुद्धि और स्वामीके भेदसे हैध्येयकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है (१८०) ।
ज्ञानार्णवमें भी लगभग इसी अभिप्रायको प्रकट करते हुए कहा गया है कि विशुद्ध आत्मदर्शन रूप इस प्रकारका ध्येय धर्म और शुक्ल इन दोनोंमें साधारण है । सूत्रमें जो इन दोनों ध्यानोंमें भेद कहा गया है वह विशुद्धि और स्वामीके भेदसे कहा गया है (1616) ।
६. सत्त्वानुशासन में कहा गया है कि आत्मश आत्मा जिस भावसे जिस रूपमें आत्माका ध्यान करता है वह उसी स्वरूपताको प्राप्त हो जाता है । जैसे- स्फटिक मणिके सामने काला अथवा लाल आदि जैसा भी पदार्थ आता है यह उस रूपमें परिणत हो जाता है ।
ज्ञानार्णवमें भी उक्त अभिप्रायको व्यक्त करते हुए उसकी पुष्टिमें 'उक्तं च' कहकर जिस श्लोक ( 2076 ) को उद्धृत किया है वह कुछ शब्दभेदके साथ तत्त्वानुशासन और आ. अमितगति प्रथम विरचित योगसार में इस प्रकार उपलब्ध होता है
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येन भावेन यद्रूपं ध्यायत्यात्मानमात्मवित् ।
तेन तन्मयतां याति सोपाधिः स्फटिको यथा ।। - तत्वानु. १९१
१. मन्त्र मण्डल और मुद्रा इनका निर्देश ज्ञानार्णव में श्लोक 1933 और 2081 द्वारा किया गया है ।
२. यह श्लोक आदिपुराण (२१-१३१) तत्वानुशासन (१८० ) और ज्ञानार्णव (1616) में कुछ शब्दपरिवर्तन के साथ समान रूपसे उपलब्ध होता है । ज्ञानार्णव में 'विशुद्धि: स्वामिभेदेन' पाठ P प्रतिके आधार लिया गया है, जबकि अन्य प्रतियोंमें 'विशुद्धि-स्वामिभेदेन' ही पाठ है।
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