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________________ प्रस्तावना ३९ प्रस्तुत ज्ञानार्णवकी रचमाके समय ग्रन्थकारके समक्ष यह तत्त्वानुशासन रहा है व उन्होंने उसकी रचनामें इसका यथायोग्य उपयोग भी किया है। विषयविवेचन आदिकी अपेक्षा इन दोनों ग्रन्थों में कहां कितनी समानता रही है, इसका कुछ विचार यहाँ किया जाता है १. तत्त्वानुशासनमें ध्याताके स्वरूपका विचार करते हुए यह कहा गया है कि तत्त्वार्थ (तत्त्वार्थवातिक ) में अप्रमत्त, प्रमत्त, सम्यग्दृष्टि और देशसंयत ये चार धय॑ध्यानके स्वामी माने गये हैं। धर्म्यध्यान मुख्य और उपचारके भेदसे दो प्रकारका है। इनमें अप्रमत्तोंके वह मुख्य होता है और इतरों-शेष तीन-के वह औपचारिक होता है ( ४३-४७ )। ज्ञानार्णवमें भी ध्याता और ध्यानके योग्य स्थानका विचार करते हुए उस प्रसंगमें यह कहा गया है कि धर्मध्यानके स्वामी मुख्य व उपचारके भेदसे अप्रमत्त और प्रमत्त ये दो माने गये हैं। आगे यहाँ किन्हीं आचार्योंके मतानुसार उस धर्मध्यानके स्वामी सम्यग्दृष्टि आदि उपर्युक्त चार गुणस्थानवर्ती भी बतलाये गये हैं ( 1326 व 1329 ) । इस प्रकार तत्त्वानुशासनमें जहाँ स्पष्ट रूपमें 'तत्त्वार्थ' का उल्लेख किया गया है वहाँ प्रस्तुत ज्ञानार्णवमें उसका संकेत 'कैश्चित्' पदके द्वारा अस्पष्ट रूपसे किया गया है। २. इसी प्रसंगमें तत्त्वानुशासनमें द्रव्य-क्षेत्रादि रूप सामग्रीके अनुसार ध्याता और उसके ध्यानके तीनतीन भेदोंका निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि आगममें विकल श्रुतसे भी मनकी स्थिरताके होने पर उस धर्मध्यानका ध्याता सुना गया है । ज्ञानार्णवमें भी यही कहा गया है कि सूत्र (आगम ) में श्रेणिके नीचे विकल श्रतसे भी प्रबुद्धात्मा धर्मध्यानका स्वामी सुना गया है। दोनों ग्रन्थोंके कुछ श्लोकोंका शब्दसाम्य भी दर्शनीय है-यथा तत्त्वान. ४८, ५० तथा ज्ञाना. 1330, 1328 । ३. तत्त्वानुशासनमें प्रकारान्तरसे द्रव्य ध्येयका निर्देश करते हुए पिण्डस्थ ध्येयका उल्लेख किया गया है व उसके स्वरूपको दिखलाते हुए यह कहा गया है कि यतः ध्याताके पिण्ड (देह) में स्थित ही ध्येयका ध्यान किया जाता है, अतः कुछ आचार्य उसे पिण्डस्थ ध्येय कहते हैं (१३४)। ज्ञानार्णवमें ध्यानके पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चार भेदोंका निर्देश करते हुए पिण्डस्थ ध्यानमें पार्थिवी, आग्नेयी, श्वसना ( मारुती ), वारुणी और तत्त्वरूपवती इन पाँच धारणाओंको ज्ञातव्य कहा गया है। इनमें-से दूसरी आग्नेयी धारणामें ध्याता नाभिमण्डल में सोलह पत्तोंवाले ऐसे कमलका स्मरण करता है, जिसके प्रत्येक पत्रपर यथाक्रमसे अकारादि १६ स्वर और कणिकापर महामन्त्र (ह) प्रतिष्ठित है। साथ ही वह हृदयमें स्थित आठ पत्तोंवाले दूसरे ऐसे कमलका स्मरण करता है जिसके प्रत्येक पत्रपर क्रमसे ज्ञानावरणादि आठ कर्म अवस्थित हैं। वह पूर्वोक्त महामन्त्रकी रेफसे निकलती हुई ज्वालाओंसे स उस अग्निका स्मरण करता है जिसने दूसरे हृदयस्थ कमलको भस्मसात् कर दिया है। इस प्रकारसे जो इसमें ध्येयका चिन्तन किया जाता है वह ध्याताके शरीरसे ही सम्बद्ध है (1886-95)। इस प्रकार तत्त्वानुशासनमें पिण्डस्थ ध्येयके विषयमें जो मतान्तरका निर्देश किया गया है उससे यह संकेत मिलता है कि तत्त्वानुशासन कारके समक्ष इन पिण्डस्थ आदि ध्यानोंका कहीं कुछ उल्लेख अवश्य रहा है। और यह सम्भव है कि आ. शुभचन्द्रने ऐसे उल्लेखोंका आश्रय लेकर अपने इस ज्ञानार्णव अन्य में उन्हें कुछ विशेष विकसित किया हो। तत्त्वानुशासनमें ही आगे चलकर ज्ञानार्णवमें निर्दिष्ट पार्थिवी आदि पाँच धारणाओंमें-से पिण्डसिद्धि १. ल. वा. ९, ३६, १३-१५। ....... . ...... २. सामग्रीके अनुसार आदिपुराणमें भी ध्यानको विशेषता प्रकट की गयी है ( २१-१०३ )।... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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