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________________ ३८ ज्ञानार्णवः वज्र काया महासत्त्वा निष्कम्पा सुस्थिरासनाः । सर्वावस्थास्वलं ध्यात्वा गताः प्राग्योगिनः शिवम् ॥-ज्ञाना. 1314 । इस समानताके अतिरिक्त आदिपुराणकी अपेक्षा ज्ञानार्णवमें यह विशेषता देखी जाती है कि आदिपुराणकारने जहाँ शिव, गरुड़ और काम इन तीन तत्त्वोंकी उपेक्षा की है वहाँ ज्ञानार्णवमें उनका गद्यरूपमें ( अम्मेवार्थ संप्रति गद्यविशदयामः । तद्यथा-प. ३५२-६८) विवेचन करते हए यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि उक्त तीनों तत्त्व अणिमा-महिमा आदि गुणरत्नोंके समुद्रस्वरूप आत्मासे भिन्न नहीं हैं, किन्तु अपने स्वाभाविक अनन्त ज्ञान-सुखादिसे सम्पन्न आत्मा ही स्वयं परमात्मा ( शिव ), गरुड़ और काम है ( 1059-60 )। इसी प्रकार ज्ञानार्णवमें प्राणायाम व उसके प्रसंगमें वायुके संचार आदिसे सूचित जीवन-मरण, लाभअलाभ, जय-पराजय एवं पुत्र-पुत्रीके जन्म आदिकी चर्चा काफी विस्तारसे की गयी है। पर आदिपुराणकारने उसे महत्त्व नहीं दिया है। इस प्रसंगको उठाते हुए वहाँ अपनी स्वतन्त्र दृष्टिसे योग, समाधि, स्मृति, प्राणायाम, धारणा, आध्यान और अनुध्यान इनके स्वरूपको प्रकट किया गया है ( २१, २१७-३० )। इसके पूर्व वहाँ लोकप्रसिद्ध प्राणायामको ध्यानमें बाधक बतलाते हुए यह कहा गया है कि अतिशय तीव्र प्राणायाममें व्यग्नताको प्राप्त हुआ ध्याताका मन व्याकुल हो उठता है, जिसके कारण समाधिके भंग हो जानेसे ध्यानकी सम्भावना नहीं रहती। हाँ, यह अवश्य है कि समाधिकी सिद्धि के लिए मन्द उच्छवास व निमेषादिका निषेध नहीं है ( २१, ६५-६६ )। ज्ञानार्णवमें संस्थानविचय धर्मध्यानकी प्ररूपणाके पश्चात् पिण्डस्थ ( 1877-1909 ), पदस्थ ( 19102032), रूपस्थ (2033-79) और रूपातीत (2080-2111) इन चार ध्यानोंका निरूपण किया गया है। पर आदिपुराणमें इन ध्यानों का कहीं कोई उल्लेख नहीं किया गया। इन चारोंके नाम मात्रका निर्देश योगीन्दु विरचित योगसारमें अवश्य किया गया है ।। ४. ज्ञानार्णव व तत्त्वानुशासन-आ. रामसेन विरचित तत्त्वानुशासनमें हेय और उपादेय इन दो तत्त्वोंको स्पष्ट करते हुए प्रमुखतासे ध्यानका वर्णन किया गया है। इसीसे उसकी प्रसिद्धि ध्यानशास्त्रके रूपमें भी रही है। आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्लके भेदसे ध्यान चार प्रकारका है। इनमें-से दूर्ध्यानस्वरूप आर्त व रौद्रको तत्त्वानुशासनमें हेय बतलाते हुए धर्म्य और शुक्ल इन दो समीचीन ध्यानोंको मुमुक्षुओंके लिए उपादेय कहा गया है ( ३४ )। साथ ही यहाँ यह भी निर्देश कर दिया गया है कि इस कालमें शुक्लध्यानके योग्य सामग्री-वज्रर्षभनाराचसंहनन व पूर्वश्रुत आदि-के सम्भव न होनेसे वर्तमान जीव उसके ध्यानमें असमर्थ हैं । इसीसे उन्हें लक्ष्य करके यहाँ धर्मध्यानका निरूपण किया जाता है ( ३५-३६ )। यह कहते हुए यहाँ इन आठ योगांगोंके आश्रयसे विशेष रूपमें धर्म्यध्यानका ही वर्णन किया गया है-ध्याता, ध्यान, फल, ध्येय, स्वामी, देश, काल और विधि ( ३७)। यहाँ न आर्त-रौद्र इन दुानोंका वर्णन किया गया है और न शुक्लध्यानका भी। यहाँ ऐहिक फलवाले आर्त और रौद्रको परित्याज्य तथा धर्म्य और शुक्लको आराधनाके योग्य बलताते हुए शुक्लध्यानके स्वरूप मात्रका निर्देश किया गया है ( २२०-२२ )। १. यह अभिप्राय अन्ततः ज्ञानार्णवमें भी प्रकट कर दिया गया है ( 1459-66 )। २. जो पिंडत्थु पयत्थु बुह रूवत्थु वि जिणउत्तु । रूवातीत मुणेहु लहु जिमि पर होहि पवित्तु ॥९७ परमात्मप्रकाशकी प्रस्तावना (पृ. ६७) में स्व. डॉ. उपाध्येजीने योगीन्दुका समय छठी शताब्दी निश्चित किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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