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प्रस्तावना
३७
सर्वार्थसिद्धिके रचयिता आ. पूज्यपादके द्वारा भी उक्त धर्म्यध्यानके ये ही चार स्वामी निर्दिष्ट किये गये हैं', पर तत्त्वार्थवातिकमें जो इस विषयमें शंका-समाधान किया गया है उससे ज्ञानार्णवकारके द्वारा जो उक्त प्रकारसे संकेत किया गया है वह तत्त्वार्थवार्तिककारकी ओर ही किया गया दिखता है।
३. ज्ञानार्णव व आदिपुराण-आदिपुराणके २१वें पर्वमें ध्यानका काफी विस्तारसे वर्णन किया गया है । ज्ञानार्णवके कर्ता आ. शुभचन्द्र के समक्ष यह आदिपुराणका ध्यानप्रकरण रहा है व उन्होंने उसको प्रस्तुत ज्ञानार्णवकी रचनामें कुछ आधार भी बनाया है । आदिपुराणमें आ. जिनसेनके द्वारा ध्यानके स्वरूप, उसके भेद-प्रभेद, स्वामी, काल, लेश्या, भाव और फल आदि जिन विषयोंकी चर्चा की गयी है वे प्रायः सभी विषय ज्ञानार्णवमें भी चचित हैं। विशेष इतना है कि आदिपुराणमें जहाँ उस ध्यानकी प्ररूपणा क्रमबद्ध व व्यवस्थित रूपमें की गयी है वहां प्रस्तुत ज्ञानार्णवमें उसके निरूपणका व्यवस्थित क्रम नहीं रहा है, बीचबीचमें अन्यान्य विषयोंकी चर्चासे क्रमभंग हुआ है व विषय बिखर गया है । पुनरुक्ति भी वहां अधिक हुई है।
प्रस्तुत ज्ञानार्णवमें शब्द व अर्थकी अपेक्षा तो आदिपुराणसे समानता है ही साथ ही यहाँ आदिपुराणके कुछ श्लोक भी 'उक्तं च' के साथ व विना संकेतके भी ग्रहण कर लिये गये हैं। यथा
पृथक्त्वं विद्धि नानात्वं वितर्कः श्रुतमच्यते । अर्थ-व्यञ्जन-योगानां वीचारः संक्रमो मतः ॥ त्रियोगः पूर्वविद् यस्माद् ध्यायत्येनन्मुनीश्वरः ।
सवितर्क सवीचारमतः स्याच्छुक्लमादिमम् ।। ये दो श्लोक आदिपुराणके हैं ( २१-१७२ व २१-१७४ ), जो ज्ञानार्णवमें बिना किसी संकेतके साधारण शब्दभेदके साथ आत्मसात् किये गये हैं। उनकी संख्या यहाँ क्रगसे 2155 व 2166 है ।
आदिपुराणके श्लोक २१, १७६-७७ व १८२ को यहाँ 'उक्तं च' के साथ उद्धृत किया गया है। उनकी संख्या यहाँ क्रमसे 2162, 2163 और 2164 है।।
ज्ञानार्णवमें आसनके प्रसंगमें यह कहा गया है कि कालदोषसे प्राणियोंके वीर्यकी विकलता होने के कारण कुछ आचार्योंने कायोत्सर्ग और पर्यंक इन दो आसनोंको ही प्रशस्त बतलाया है ( 1313 ) । यहाँ 'कुछ आचार्यो' से उनका संकेत जिनसेनाचार्यकी ओर रहा है, क्योंकि उन्होंने ही इन दो आसनोंको प्रशस्त बतलाया है। यथा
विसंस्थुलासनस्थस्य ध्रुवं गात्रस्य निग्रहः । तन्निग्रहान्मनःपीडा ततश्च विमनस्कता ।। वैमनस्ये च कि ध्यायेत् तस्मादिष्टं सुखासनम् ।
कायोत्सर्गश्च पर्यस्ततोऽन्यद् विषमासनम् ।।-आ. पु. २१, ७०-७१ । आदिपुराणके कुछ ऐसे भी श्लोक यहाँ उपलब्ध होते हैं जिनमें कुछ ही शब्द परिवर्तित हैं । यथा
वज्रकाया महासत्त्वा सर्वावस्थान्तरश्रिताः । श्रूयन्ते ध्यानयोगेन संप्राप्ताः पदमव्ययम् ।।-आ. पु. २१-७३ ।
१. तदविरत-देशविरत-प्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां भवति । स. सि. ९-३६ । २. त. वा. ९, ३६, १३-१५ । ३. ज्ञानार्णवके कर्ताने आ. जिनसेनको महत्त्व देते हुए उनके विद्यवन्दित वचनोंको योगियोंके आत्मनिश्चयमें
स्थिरताका कारण बतलाया है ( देखिए श्लोक १-१६)।
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