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________________ ज्ञानार्णवः परम्पराके विरोधके टालनेकी दृष्टिसे अपनाया है। यह भी सम्भव है कि उनके सामने ज्ञानार्णवकी शायद ऐसो ही कोई प्रति रही हो जिसमें उसी क्रमसे वे श्लोक व्यवस्थित हों। श्लोक 2195 को उद्धृत करते समय उनके सामने पाटण प्रति-जैसा पाठ नहीं रहा, बल्कि अन्य प्रतियोंका ही पाठ रहा है। ७. ज्ञानार्णवको अन्य ग्रन्थोंसे तुलना १. ज्ञानार्णव व समाधितन्त्र-आचार्य पूज्यपाद विरचित समाधितन्त्र एक अध्यात्मप्रधान ग्रन्थ है। इसमें बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा इन जीवभेदोंका निर्देश करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि बहिरात्मा जीव बाह्य इन्द्रियोंके आश्रयसे शरीरको ही आत्मा समझता है व उन दोनोंमें भेद नहीं करता। जबतक शरीरमें आत्मबुद्धि बनी रहती है तबतक जीवके साथ शरीरका सम्बन्ध भी बना रहता है-उसकी परम्परा चलती रहती है। मुक्तिकी प्राप्ति शरीर व आत्मामें भेदविज्ञानसे होती है । उस भेदविज्ञानसे जीव अन्तरात्मा होकर स्वयं परमात्मा बन जाता है । तब उस अवस्थामें उपास्य और उपासकका भी भेद नहीं रहता। प्रस्तुत ज्ञानार्णवमें जो 'शुद्धोपयोगविचार' नामक २९वां प्रकरण है उसमें उपर्युक्त समाधितन्त्रगत अभिप्रायको आत्मसात् किया गया है। दोनों ग्रन्थोंका एक साथ अध्ययन करनेपर ऐसा प्रतीत होता है कि ज्ञानार्णवकारने यथाक्रमसे समाधितन्त्रका पद्यानुवाद ही किया है। उदाहरणके रूप में दोनों ग्रन्थों के इन श्लोकोंको देखिए मूलं संसारदुःखस्य देह एवात्मधीस्ततः । त्यक्त्वनां प्रविशेदन्तर्बहिरव्याप्ततेन्द्रियः ।। मत्तश्च्युत्वेन्द्रियद्वारैः पतितो विषयेष्वहम् । तान् प्रपद्याहमिति मां पुरवेद न तत्त्वतः ।।-समाधितन्त्र १५-१६ तनावात्मेति यो भावः स स्याद बीजं भवस्थितेः । बहिर्वीताक्षविक्षेपस्तत्त्यक्त्वान्तविशेत्तदा ॥ अक्षद्वारैर्गलित्वा मन्निमग्नो गोचरेष्वहम् । तानासाद्याहमित्येतन्न हि सम्यगवेदिषम् ।।-ज्ञानार्णव 1534-35 यह क्रम आगे बराबर चलता रहा है। इष्टोपदेश-उक्त आ. पूज्यपाद विरचित इष्टोपदेशका २५वा श्लोक प्रस्तुत ज्ञानार्णवमें 'उक्तं च' के साथ उद्धृत किया गया है। उसकी संख्या यहाँ 1510 है। २.ज्ञानार्णव व तत्वार्थवार्तिक-भद्राकलंकदेव विरचित तत्त्वार्थवातिकके प.१४ पर 'हतं ज्ञानं क्रियाशून्य' आदि एक श्लोक उद्धृत किया गया है। यह श्लोक प्रस्तुत ज्ञानार्णवमें भी 315 संख्याके अन्तर्गत 'उक्तं च' के साथ उद्धृत किया गया है। प्रकृत श्लोक किस ग्रन्थका है, ज्ञात नहीं होता । सम्भव है ज्ञानार्णवकारने उसे तत्त्वार्थवातिकपरसे ही यहाँ उद्धृत किया हो। ज्ञानार्णवमें धर्मध्यानके स्वामीका निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि उसका स्वामी यथायोग्य मुख्य रूपसे अप्रमत्त और उपचारसे प्रमत्त होता है । सम्पूर्ण लक्षणवाला उसका ध्याता वही अप्रमत्त होता है जो उत्तम संस्थानसे सहित, वज्रकाय-वज्रर्षभनाराच आदि तीन प्रशस्त संहननवाला, जितेन्द्रिय, स्थिर, पूर्वश्रुतका ज्ञाता और यथासम्भव मिथ्यात्व आदि रूप आस्रवका निरोधक हो। आगे कहा गया है कि कुछ आचार्योंके द्वारा यथायोग्य हेतुसे उस धर्मध्यानके सम्यग्दृष्टिसे अप्रमत्त पर्यन्त चार स्वामी माने गये हैं ( 132629 )। यहाँ श्लोकमें उपयुक्त 'कैश्चित्' पदसे सम्भवतः तत्त्वार्थवार्तिककारका ही अभिप्राय रहा है। यद्यपि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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