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प्रस्तावना
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अन्तमें ग्रन्थकार कहते है कि इस प्रकारसे मैंने कुछ उत्तम वर्गों के द्वारा संक्षेपमें ध्यानके फलको कहा है। पर्ण रूपसे यदि कोई उसके कथनमें समर्थ है तो वे वीर प्रभ ही हैं। मैंने जिनागमसे कुछ साररूपमें उद्धृत करके अपने बुद्धिवैभवके अनुसार इस ध्यानशास्त्रकी रचना की है। जो चित्तमें ज्ञानार्णवके माहात्म्यका वेदन करता है वह दुस्तर भवार्णवसे पार हो जाता है ( 2140-2230 )। ७२ कर्मप्रकृतियोंका क्षय ?
प्रकृतमें श्लोक 2195 के द्वारा जो यह कहा गया है कि सूक्ष्मक्रिय ध्यानमें देवदेव ( सयोग केवली) के ७२ कर्मप्रकृतियाँ विलीन हो जाती हैं वह पूर्व आगमग्रन्थोंसे-जैसे सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवार्तिक, षटखण्डागमकी धवला टीका और आदिपुराण आदिसे-मेल नहीं खाता। कारण यह कि इन सभी ग्रों में उक्त ७२ कर्मप्रकृतियोंका क्षय अयोग केवलीके द्विचरम समयमें निर्दिष्ट किया गया है। सूक्ष्मकाययोगस्थ सयोगकेवलीके सूक्ष्मक्रिय ध्यानमें उक्त कर्मप्रकृतियोंका क्षय होता है, ऐसा अन्यत्र किसी ग्रन्थमें देखने में नहीं आया।
प्रस्तुत संकरण पाटण (P) प्रतिको आदर्श मानकर उसके आधारसे तैयार किया गया है। तदनुसार प्रकृत श्लोकका पाठ इस प्रकार रहा है-xxx प्रकृतयस्तदा। अस्मिन् सूक्ष्मक्रिये ध्याने देवदेवस्य दुर्जयाः ॥ इस प्रतिको छोड़कर शेष सभी प्रतियोंमें उसके स्थानपर यह पाठ रहा है-xxxप्रकृतयो द्रुतम् । उपान्त्ये देवदेवस्य मुक्तिश्रीप्रतिबन्धकाः ॥ इस पाठके अनुसार भी पूर्वोक्त विरोध तदवस्थ रहता है।
यह अवश्य है कि इस पाठके अनुसार यदि वह श्लोक (2195) श्लोक 2196 के बाद रहा होता तो उसमें निर्दिष्ट अयोगकेवलीका प्रसंग पाकर उसका अभिप्राय यह हो सकता था कि अयोगकेवलीके उपान्त्य (द्विचरम) समयमें बहत्तर कर्मप्रकृतियाँ विलयको प्राप्त होती है। इस अवस्थानमें भी आगेके श्लोक 2196 में उपयुक्त 'तस्मिन्नेव क्षणे' अर्थात् 'तृतीय शुक्लध्यानके ही समयमें' यह विचारणीय ही बना रहता है।
यह समस्या सम्भवतः पं. आशाधरके सामने भी रही है। यही कारण है जो उन्होंने भगवती आराधनाके अन्तर्गत गा. १८८७ को टीकामें 'उक्तं च ज्ञानार्णवे विस्तरेण' कहकर क्रमसे 2186-87, 2189-91 और 2193-94 इन सात श्लोकोंको उद्धृत किया है, पर आगेके विवादापन्न उक्त 2195वें श्लोकसे छोड़ दिया है। स्मरण रहे कि पं. आशाधरने धर्म्यध्यानके प्रसंगमें 'स एवं संक्षेपेण धर्मध्यानभेदनिर्णयो विस्तरतस्त्वार्षोक्तं धयं यथा' यह कहते हुए गा. १७०८ की टीकामें आदिपुराणके अन्तर्गत २१वें पर्वके १३४-६४ श्लोकोंको यथाक्रमसे उद्धृत किया है। इसके पूर्व आर्त और रौद्रध्यानके प्रसंगको भी उन्होंने आदिपुराणसे उद्धृत किया है।
भ. शुभचन्द्रने भी कार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. ४८७ को टीकामें उपर्युक्त प्रसंगसे सम्बद्ध ज्ञानार्णवके 2201.2195-97 और 2202 इन पाँच श्लोकोंको उद्धत किया है, पर वे ज्ञानार्णवमें निर्दिष्ट क्रमके अनुसार उनके द्वारा वहाँ उद्धृत नहीं किये गये। उन्होंने वहाँ जिस क्रमको अपनाया है उसे शायद पूर्वोक्त आगम
१. देखिए सर्वार्थसिद्धि १०-२; त. वा. १०, २, ३; धवला पु. ६, पृ. ४१७; आ. पु. २१, १९४-९८;
कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका ४८७, पृ. ३८६ (विशेष इतना है कि धवलामें इन ७२ प्रकृतियों के साथ मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी को लेकर ७३ प्रकृतियोंका क्षय शैलेशी (अयोगकेवली) कालके द्विचरम समयमें और उस मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके बिना १२ प्रकृतियोंका क्षय उक्त शैलेशीकालके अन्तिम समयमें निर्दिष्ट
किया गया है)। २. बीच में जिनाज्ञाको विशेषताको दिखलानेवाले केवल २१, १३६-३९ इन ४ श्लोकोंको छोड़ा गया है।
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