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________________ ज्ञानार्णवः इस वस्तुस्वरूपको जिस योगीने समझ लिया है वह उस सिद्धस्वरूप परमात्माके चिन्तनमें तत्पर होता है । मुक्त हो जानेपर जीव जिस स्वरूप व आकारमें स्थित रहता है उसे यहाँ एक-दो उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया गया है ( 2080-2111 )। - ३८. धर्मध्यानफल-यहाँ मुनिको मनोनिरोधकी प्रेरणा करते हुए यह कहा गया है कि हीन बलबाले मुमुक्षु जन यद्यपि चित्तको स्थिर करना चाहते हैं, पर उनका वह चित्त विषयोंसे व्याकुल होक नहीं हो पाता। इसी लिए हीन बलयुक्त प्राणी शुक्लध्यानके अधिकारी नहीं माने गये। उसके स्वामी प्रथम संहननके धारक वे बलिष्ठ जीव हुआ करते हैं जो शरीरके छेदे-भेदे व जलाये जाने पर भी पत्थरकी मूर्तिके समान अडिग रहते हैं। धर्मध्यानमें उद्यत सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानवर्ती संयतोंमें जो क्षपक है उसके उत्तरोत्तर असंख्यात गुणित क्रमसे कर्मोका क्षय होता है तथा जो उपशमक है उसके उसी क्रमसे उन कर्मोंका उपशम होता है। इस धर्मध्यानकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त, भाव क्षायोपशमिक और लेश्या शुक्ल ही होती है । विषयतृष्णाका अभाव, नीरोगता, दयालुता, शरीरको सुगन्धता, मल-मूत्रको हीनता, कान्ति, प्रसन्नता और उत्तम स्वर; ये उक्त ध्यानके चिह्न-अनुमापक हेतु है। उस ध्यानका ध्याता अन्तमें शरीरको छोड़कर प्रैवेयकों, अनुत्तर विमानों अथवा सर्वार्थसिद्धि में देव पर्यायको प्राप्त करता है। वहाँसे च्युत होकर वह उत्तम मनुष्य भवमें जन्म लेता है.व वहाँ अपनी शक्तिके अनुसार धर्म और शुक्लध्यानका आश्रय लेकर परम पदको प्राप्त कर लेता है (2112-39)। ३९. शुक्लध्यानफल-पूर्वोक्त धर्मध्यानका उपसंहार करते हुए यहाँ यह कहा गया है कि जो भव्य जीव अतीन्द्रिय सुखको चाहते हैं वे अपने विक्षिप्त चित्तको स्थिर करके विवेकपूर्वक धर्मध्यानरूप समुद्रमें अवगाहन करते हुए मुक्तिसुखका अनुभव करें। आगे कहा गया है कि धीर योगी आत्यन्तिकी शुद्धिको प्राप्त करके उस धर्मध्यानका अतिक्रमण करता हुआ शुक्लध्यानको प्रारम्भ करता है। शुक्लध्यानके स्वरूपका निर्देश करते हए कहा गया है कि जो चित्त क्रियासे रहित, इन्द्रियोंसे अतीत और ध्यान-धारणासे विहीन होकर अन्तर्मुख हो जाता है -समस्त संकल्प-विकल्पोंसे रहित होकर आत्मस्वरूपमें लीन हो जाता है-उसे शुक्लध्यान जानना चाहिए । प्रथम संहननसे संयुक्त योगी चारों प्रकारके शुक्लध्यानके योग्य होता है। वह ध्यान निर्मलता तथा कषायोंके क्षय अथवा उपशम हो जानेके कारण चूँकि वैडूर्य मणिके समान अतिशय निर्मल व स्थिर होता है। इसीलिए उसे शुक्लध्यान कहा गया है। आगे लक्षणनिर्देशके साथ शुक्लध्यानके स्वामियों व भेदोंको दिखलाते हुए यह कहा गया है कि द्वितीय एकत्ववितर्क शक्लध्यानके प्रभावसे आर्हन्त्य अवस्थाके प्राप्त हो जानेपर जब केवलोको आयु अन्तर्मुहूर्तमात्र शेष रह जाती है तब वे तृतीय शुक्ल. ध्यानके ध्याता होते हैं। जो छह मासको आयुके शेष रह जानेपर केवली हुए हैं वे नियमसे समुद्घातको किया करते हैं। किन्तु जो इससे अधिक आयुके शेष रहनेपर केवलो हुए हैं उनके लिए समुद्घातका नियम नहीं है-कोई करते हैं और कोई नहीं भी करते हैं । यह समुद्घात क्रिया तब की जाती है जब कि उनके शेष कर्मों की स्थिति आयुसे अधिक होती है। इस प्रक्रियासे लोकपुरण समुद्घातमें उनके चारों अघाती कर्मोंकी स्थिति समान हो जाती है। तत्पश्चात् वे योगोंका निरोध करते हए जब सूक्ष्म काययोगमें स्थित होते हैं तब वे पूर्वोक्त सूक्ष्मक्रिय नामक तृतीय शुक्लध्यानके योग्य होते हैं। इस ध्यानमें उनकी बहत्तर कर्मप्रकृतियाँ विलीन हो जाती हैं। उसी समय अयोग केवलोके समुच्छिन्नक्रिय नामका चौथा शुक्लध्यान प्रकट होता है। उसमें उनकी शेष तेरह कर्मप्रकृतियाँ भी अन्तिम समयमें विनष्ट हो जाती हैं। उक्त अयोग केवली पाँच हस्व अक्षरोंके उच्चारणकाल तक स्थित रहकर तत्सश्चात् स्वाभाविक ऊर्ध्वगतिसे गमन करते हुए लोकशिखरपर जा विराजते हैं। तब वे वहाँ निर्बाध शाश्वतिक सुखके उपभोक्ता हो जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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