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________________ प्रस्तावना ३३ भस्म होता हुआ देखता है जिसके आठ पत्तोंपर ज्ञानावरणादि आठ कर्म स्थित हैं । पश्चात् वह शरीर के बाहर उस त्रिकोण अग्निमण्डलका स्मरण करता है जो शरीर और उस कमलको जलाकर दाह्यके शेष न रहने से स्वयं शान्त हो गया है । मारुती धारणा में योगी आकाशमें संचार करनेवाली भयानक उस प्रबल वायुका विचार करता है जिसने पृथिवीतलमें प्रविष्ट होकर भस्मीभूत उस शरीर और कमलकी भस्मको उड़ा दिया है । वारुणी धारणामें योगी आकाशमें इन्द्रधनुष और बिजलीसे युक्त उस मेघपटलको देखता है जिसने बड़ी-बड़ी बूंदों में वर्षा करते हुए पूर्वोक्त उस धूलिको धो डाला है । अन्तिम तत्त्वरूपवती धारणा में योगी सात धातुओंसे रहित निर्मल सर्वज्ञ सदृश उस आत्माका स्मरण करता है जो दिव्य अतिशयोंसे सुशोभित और कल्याणक - महिमासे संयुक्त होकर सिंहासनपर विराजमान है । अन्तमें पूर्वके समान ( 1875 ) यहाँ भी कहा गया है कि इस प्रकारसे ध्यान में कर्मसे निर्मुक्त पुरुषाकार उस परमात्माका स्मरण करना चाहिए ( 1877-1909 ) । ३५. पदस्थध्यान - यहाँ पदस्थध्यानके स्वरूपको दिखलाते हुए यह कहा गया है कि योगी जन पवित्र पदोंका आलम्बन लेकर जो चिन्तन किया करते हैं वह पदस्थध्यान कहलाता है । इस पदस्थध्यानके प्रसंग में यहाँ वर्णमातृका ( स्वर व व्यंजन वर्ण ), मन्त्रराज ( र्ह), अनाहत देव, प्रणव (ॐ), गुरु पंचनमस्कार मन्त्र, सप्ताक्षर मन्त्र, सोलह अक्षरयुक्त महाविद्या, छह वर्णयुक्त विद्या, चार वर्णयुक्त मन्त्र, दो वर्णयुक्त मन्त्र, अ वर्ण, पाँच वर्णमय विद्या, मंगल-उत्तम शरण पदसमूह, तेरह अक्षरोंवाली विद्या, पाँच वर्णमय मन्त्र, आठ वर्णयुक्त मन्त्र, मायावर्ण, महाविद्या, सप्ताक्षर मन्त्र, प्रणव शून्य - अनाहतत्रय; इत्यादि बहुत से मन्त्रों व विद्याओंको चिन्तनीय बतलाते हुए उन सबका पृथक्-पृथक् फल भी प्रकट किया गया है । यहाँ सिद्धचक्रके सम्बन्ध में यह विशेष निर्देश किया गया है कि संजयन्त आदि मुनियोंके द्वारा विद्यानुवादसे उद्धृत उस सिद्धचक्रका स्मरण करना चाहिए जो भुक्ति ( भोग ) और मुक्तिका स्थान है- उनका कारण है । इस प्रकारसे यहाँ विविध मन्त्रों व विद्याओंका निर्देश करते हुए श्रुत-समुद्रसे समुद्भूत अन्य भी मन्त्रोंके ध्यानकी प्रेरणा की गयी है ( 1910-2032 ) | ३६. रूपस्थध्यान - यहाँ अरहन्त अवस्थाको प्राप्त होकर समस्त अतिशयों व प्रातिहार्यो आदिसे विभूषित सर्वज्ञ वीतराग जिनका अनेक सार्थक नामोंके द्वारा निर्देश करते हुए उनका स्मरण करनेकी प्रेरणा की गयी है ( 2033-79 ) 1 ३७. रूपातीत ध्यान यहाँ प्रारम्भमें यह निर्देश किया गया है कि जो वीतरागका स्मरण करता है वह वीतराग होकर मुक्तिको प्राप्त कर लेता है तथा इसके विपरीत जो रागी सरागका स्मरण करता है वह क्रूर कर्मोंका आश्रय लेकर संसार में परिभ्रमण करता है । यद्यपि मुनिजनोंने विद्यानुवादसे असंख्यात कर्मोको— मारण, उच्चाटन व वशीकरण आदि क्रियाओंको — प्रकट किया है, पर वे केवल कुतूहलके लिए ही प्रकट किये गये हैं, क्योंकि वे कुमार्ग में ले जानेवाले दुर्ध्यान हैं । इस प्रकारके दुर्ष्यानोंको यहाँ आत्मघातक बतलाकर उनका निषेध किया गया है और ऐसे ध्येयके चिन्तनकी प्रेरणा की गयी है जो जीव और कर्मके सम्बन्धको नष्ट करनेवाला हो । पूर्वोक्त रूपस्थध्यानमें चित्तके स्थिर हो जानेपर फिर योगी रूपातीतध्यानमें तत्पर होता है। जिस ध्यानमें चिदानन्दस्वरूप, निर्मल, अमूर्त व अविनाशी आत्माका स्मरण किया जाता है वह रूपातीत ध्यान कहलाता है । विशुद्ध और अशुद्ध — मुक्त और संसारी – इन दोनों आत्माओं में स्वाभाविक ज्ञानादि गुणोंकी अपेक्षा समानता है । विशेषता केवल इतनी है कि विशुद्ध आत्माके वे गुण प्रकट हो चुके हैं, पर अशुद्ध आत्मामें वे शक्तिरूपमें हो विद्यमान हैं—प्रकट नहीं हैं, उन्हें प्रकट करना है । [५] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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