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ज्ञानार्णवः
कैसे होता है, किस प्रकारसे वे निर्जीर्ण होते हैं, मुक्ति क्या है तथा मुक्तिको प्राप्त जीवका स्वरूप कैसा है; इत्यादि । वह यह भी विचार करता है कि यदि मैंने अपनेको जान लिया तो तीनों लोकोंको ही जान लिया । मैं वस्तुतः सर्वज्ञ व सर्वदर्शी होकर कर्मकालिमासे रहित हैं। अन्तमें यह प्रेरणा की गयी है कि इस प्रकार अनेक उपायों द्वारा आत्मसिद्धिके लिए कर्मोंके अपायका निश्चय करना चाहिए ( 1640-57 )।
३२. विपाकविचय-पर्वबद्ध कर्म उदयमें आकर जो अपना फल देता है, इसका नाम विपाक है । वह कर्म द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चारके अनुसार प्राणियोंको जो अनेक प्रकारके फलको दिया करता है उसको यहाँ पृथक्-पृथक् उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया गया है। मल कर्मप्रकृतियाँ ज्ञानावरणादि रूप आठ तथा उनके उत्तर भेद यथासम्भव अनेक हैं। यहाँ संक्षेपमें उनके स्वरूपका भी दिग्दर्शन कराया गया है। जिस प्रकार आम आदि फलोंको तोड़कर व उन्हें पालमें देकर समयके पूर्व ही पका लिया जाता है उसी प्रकार तपश्चरणादिके द्वारा पूर्वबद्ध कर्मोको उनकी स्थिति पूर्ण होनेके पूर्व ही उदयको प्राप्त कराकर निर्जीर्ण कराया जा सकता है। इस प्रकारसे विशुद्ध आत्मपरिणतिके द्वारा उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी कर्मनिर्जराके होनेपर जब चतुर्थ-व्युच्छिन्नक्रियानिवर्ती-शुक्लध्यानके द्वारा समस्त कर्म आत्मासे पृथक् हो जाते हैं तब शरीरसे रहित हो जाने पर पुरुषके आकारमें अवस्थित अमतिक आत्मा सिद्धिपद ( मुक्ति ) को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार यहाँ कर्मबन्धके वश होकर प्राणी किस प्रकारसे कष्टको सहता है तथा मुमुक्षु योगी ध्यान और तपश्चरणके द्वारा किस प्रकारसे उन कर्मों को नष्ट करके शाश्वतिक एवं निराकुल सुखको प्राप्त करता है, इस प्रकारके चिन्तनकी यहाँ प्रेरणा की गयी है ( 1658-88 )।
३३. संस्थानविचय-संस्थानका अर्थ आकार है। निराधार अनन्तानन्त आकाशके बीचमें चेतनअचेतन द्रव्योंसे व्याप्त लोक अवस्थित है। वह अधः, मध्य और ऊर्ध्वको अपेक्षा तीन भागोंमें विभक्त होकर क्रमसे घनोदधि, धन और तनु इन तीन वायुओं ( वातवलयों) से वेष्टित है। अधोलोकका आकार बेंतके आसन-जैसा, मध्यलोकका झालर-जैसा और ऊर्ध्वलोकका आकार मृदंग-जैसा है। अधोलोकमें नारकी, मध्यलोकमें मनुष्य व तिथंच तथा ऊर्ध्वलोकमें देवोंका निवास है। इस प्रकार यहाँ लोकके विभागोंसे आकार और वहाँ रहनेवाले प्राणियों-विशेषकर नारकियों व देवों-के सुख-दुख एवं आयु आदिका विस्तारसे वर्णन किया गया है । अन्त में जैसा कि पूर्व प्रकरण ( 1686 ) में निर्देश किया जा चुका है, यहां भी यह कहा गया है ( 1875) कि इस प्रकारके चिन्तनसे जिनके समस्त कर्म नष्ट हो गये हैं उनका जो अपने शरीरके मध्यगत प्रकाशमान अतिशय निर्मल पुरुषाकार-सिद्धोंके आत्मप्रदेशोंका पूर्व शरीर-जैसा अमूर्तिक आकार-प्रकट हो जाता है उसका स्मरण करना चाहिए । इस प्रकार यहाँ प्ररूपित लोकके आकारका चिन्तन करनेवाला योगी नियमसे केवलज्ञानरूप राज्यको पा लेता है ( 1689-1876 )।
३४. पिण्डस्थध्यान-यहाँ पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपजित (रूपातीत ) इन ध्यानके चार भेदोंका निर्देश करते हुए उनमें प्रथम पिण्डस्थ ध्यानका निरूपण किया गया है। उसमें पार्थिवी, आग्नेयी, श्वसना ( मारुती), वारुणी और तत्त्वरूपवती इन वीरवणित पाँच धारणाओंको ज्ञातव्य बतलाते हुए प्रथम पाथिवी धारणाके प्रसंगमें यह कहा गया है कि योगी मध्यलोकके समान क्षीर-समुद्र, उसमें जम्बूद्वीप प्रमाण हजार पत्तोंवाले कमल, उसमें मेरु पर्वत रूप कणिका, उसके ऊपर सिंहासन और उसके ऊपर विराजमान राग-द्वेष विरहित आत्माका स्मरण करता है ।
आग्नेयी धारणामें वह नाभिमण्डल में सोलह पत्तोंवाले कमल, उन सोलह पत्तोंपर क्रमसे अवस्थित अकारादि सोलह स्वरों, कणिकापर महामन्त्र (ह), उसकी रेफसे निकलती हुई धूमशिखा, अग्निकणों एवं ज्वालावलीका चिन्तन करता है। इस ज्वालासमूहके द्वारा वह हृदयस्थ उस आठ पत्तोंवाले अधोमुख कमलको
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