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________________ प्रस्तावना अपने अतिरिक्त श्रमके न करनेकी सूचना की है। अन्तमें यहाँ चितके आलम्बनभूत दस ध्यानस्थानोंका निर्देश करते हुए यह सूचना की है कि इन स्थानों में विधामको प्राप्त लक्ष्य (ध्येय ) को विस्तृत करनेवाले मुनिके आत्मसंवेदन जनित बहुत पे ध्यानके प्रत्यय उत्पन्न होते हैं ( 1456-69 ) । ३१ २८. सवीर्य ध्यान यहाँ अनादि कालसे कर्मबन्धनमें बद्ध आत्माकी क्या अवस्था रही है तथा स्वभावतः वह कैसा है, इसका विचार करते हुए यह निश्चय कराया गया है कि ज्ञानकी दृष्टिसे में और परमात्मा दोनों समान हैं। विशेष इतना कि अनन्त ज्ञानादि गुणों का समुदाय परमात्मामें प्रकट हो चुका है, पर मुझमें वह शक्तिरूपमें ही विद्यमान है । आज मुझे अपने सामर्थ्यको जानकर उस कर्मबन्धनसे मुक्त होने के लिए धर्मध्यानका और विशेष शक्तिके होनेपर शुक्लध्यानका आश्रय लेना है, इस प्रकारकी यहाँ प्रतिज्ञा की गयी है। उस ध्यानमें चिन्तनीय चेतन-अचेतन जीवाजीवादि पदार्थ और परमात्माका स्वरूप है। इस प्रसंगमें यहाँ परमात्माके स्वरूपका विचार करते हुए यह कहा गया है कि योगी जब निरन्तर उस परमात्माका स्मरण करता है तब वह स्वयं तन्मय हो जाता है । इसे ही यहाँ सवीर्य ध्यान कहा गया है ( 1470-1512 ) 1 २९. शुद्धोपयोग विचार -- जो अपने आत्मस्वरूपको नहीं जानता है वह पूर्वोक्त परम पुरुष या परमात्माको नहीं जान सकता है इसलिए यहाँ प्रथमतः आत्मस्वरूपके जान लेने की प्रेरणा करते हुए जीवके बहिरात्मा अन्तरात्मा और परमात्मा ये तीन भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। इनमें जो शरीर आदिसे भिन्न आत्माको न जानता हुआ उन शरीर आदिको ही आत्मा समझता है उसे बहिरात्मा कहा जाता है जिसे पुद्गलमय जड़ शरीरखे भिन्न चेतन आत्मामें ही आत्माका निश्चय हो चुका है वह अन्तरात्मा कहलाता है । जो कर्म-मल व शरीरसे रहित होकर निर्मल हो चुका है तथा समस्त संकल्प - विकल्पोंसे नन्दको प्राप्त कर चुका है उसे परमात्मा कहा जाता है । इस प्रकारसे यहाँ जीवके उनके पृथक-पृथक स्वरूपको दिखलाकर यह कहा गया है कि बहिरात्मा जीव पिता-पुत्र व धन-सम्पत्ति आदिको अपना मानता हुआ निरन्तर उनमें मुग्ध रहता है व कर्मबन्धसे बद्ध होता है, जिससे उसके जन्ममरणकी परम्परा चलती ही रहती है । इसी से यहाँ आत्महितैषी जीवको पूर्वोक्त बहिरात्मपने को छोड़कर अन्तरात्मा हो जानेका विविध प्रकारसे उपदेश दिया गया है, जिससे कि परमात्माका ध्यान करके स्वयं परमात्मा बन सके | अन्तमें यहाँ उस परमात्मारूप ध्येयको धर्म और शुक्ल इन दोनों ही ध्यानोंका साधारण ध्येय बतलाते हुए दोनों में विशुद्धि और स्वामी के भेदसे भेदका निर्देश किया गया है ( 1513-1616 ) । निर्मुक्त होकर परमाउपर्युक्त तीन भेदों व ३०. आज्ञाविचय-यहाँ चित्तको आत्मस्वरूप में स्थिर करने के लिए धर्मध्यानके आज्ञाविषय अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय इन चार भेदोंका निर्देश करते हुए प्रथम आज्ञाविचय ध्यानकी प्ररूपणा की गयी है। उसके स्वरूपको बतलाते हुए यह कहा गया है कि जिस ध्यान में सर्वज्ञकी आज्ञा के अनुसार आगमसिद्ध वस्तुस्वरूपका विचार किया जाता है वह आज्ञाविषय कहलाता है। अनन्त गुणों और पर्यायोंसे संयुक्त चेतन-अचेतनरूप वस्तुका लक्षण उत्पाद, व्यय और प्रीव्य है। उसका निर्णय प्रमाण, नय और निक्षेपके आश्रयसे किया जाना चाहिए। प्रसंगवश यहाँ श्रुतज्ञानके माहात्म्यको दिखलाते हुए उसके चिन्तनकी प्रेरणा की गयी है । अन्त में फिरसे उस आज्ञाविचय धर्मध्यानके स्वरूपको दिखलाते हुए कहा गया है कि सर्वज्ञकी आशाको प्रमाण करके जिसमें पदार्थका यथार्थ रूपमें चिन्तन किया जाता है उसे योगीन्द्रोंने आज्ञाविषय धर्मध्यान कहा है (1617-39 ) । ३१. अपायविचय अपायका अर्थ विनाश है, जिस ध्यानमें कमोंके विचार किया जाता है वह अपायविषय धर्मध्यान कहलाता है। इस ध्यानमें विनाश के लिए साधु विचार करता है कि मैं कौन हूँ, मेरे कमका आस्रव किस कारण से होता है, बन्ध उनका विनाश और उसके उपायका अनादि कालसे सम्बद्ध कर्मके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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