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________________ ३० ज्ञानार्णवः २६. प्राणायाम-पूर्वमें ध्यानके अयोग्य उपर्युक्त स्थानोंको बतलाकर यहां यह निर्देश किया गया है कि ध्यानकी सिद्धि सिद्धक्षेत्र, महातीर्थ, पुराणपुरुषोंसे अधिष्ठित और तीर्थंकरोंके कल्याणकोंसे सम्बद्ध क्षेत्र में हुआ करती है । इनके अतिरिक्त वृक्षकोटर, जीर्ण उद्यान, श्मशान, गुफा, सिद्धकूट, जिनालय और कोलाहल एवं उपद्रवसे रहित जनशून्य गृह आदिको भी ध्यानके योग्य स्थान कहा गया है। इसके साथ यह भी निर्देश कर दिया गया है कि जहाँपर रागादि दोषोंके उत्पन्न होनेकी सम्भावना न हो ऐसा स्थान सदा ही, विशेषकर ध्यानके समयमें, योग्य माना गया है ( 1301-9)। ध्यानके योग्य आसनके प्रसंगमें यह कहा गया है कि काष्ठफलक, शिला, भूमि अथवा रेतीले स्थानमें पर्यंक, अर्धपर्यंक, वज्रासन, वीरासन, सुखासन, कमलासन अथवा कायोत्सर्गसे स्थित होकर ध्यान करना चाहिए। साथ ही निष्कर्षके रूपमें यह भी कह दिया है कि स्थान चाहे निर्जन हो अथवा जनोंसे संकीर्ण हो, स्थिति भी चाहे सुखद हो अथवा दुखप्रद हो, जिस किसी भी अवस्था में चित्त स्थिर रहता है उसी अवस्थामें स्थित होकर ध्यान करना उचित है। दिशाओं में यहाँ पूर्व और उत्तर दिशाका विधान किया गया है ( 1310-25 )। धर्मध्यानके स्वामीका निर्देश करते हुए यहाँ यह कहा गया है कि उसके स्वामी मुख्य रूपसे अप्रमत्तसंयत और गौण रूपसे प्रमत्तसंयत है। मतान्तरसे उसके स्वामी सम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक चार गुणस्थानवर्ती बतलाये गये हैं ( 1326-29 )। आगे लेश्याविशद्धि के अनुसार ध्याता और ध्यानके तीन-तीन भेदोंका निर्देश करते हए ध्यानकी कुछ प्रक्रिया भी बतलायी गयी है ( 1330-41 )। इस प्रकार धर्मध्यानका कुछ निरूपण करनेके पश्चात् प्राणायामका उपक्रम करते हुए यहाँ प्रथमतः यह निर्देश किया गया है कि अपने सिद्धान्तका भले प्रकारसे निर्णय कर लेनेवाले मुनियोंने ध्यानकी सिद्धि के निमित्त मनकी स्थिरताके लिए प्राणायामकी प्रशंसा की है। इसीलिए बुद्धिमान् भव्य जनोंको उसका ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, क्योंकि उसके बिना मनके ऊपर विजय प्राप्त करना शक्य नहीं है। पूर्वाचार्योंने उसे लक्षणके भेदसे तीन प्रकारका माना है-पूरक, कुम्भक और रेचक । आगे संक्षेपमें इन तीनोंके लक्षणोंका निर्देश करते हुए प्राणायामसे होनेवाले लाभको प्रकट किया गया है। तत्पश्चात् नासिकाछिद्रों में रहनेवाले पार्थिव आदि चार मण्डलों, उनमें संचार करनेवाली पुरन्दर आदि चार वायुओं, उनके फलों, वाम-दक्षिण नाड़ियों, स्वरसंचारके आधारसे प्रश्नोंके उत्तरों, जीवन-मरण, जय-पराजय, वर्षा, धान्यनिष्पत्ति, वशीकरण, गर्भमें स्थित पुत्र-पुत्री आदिके जन्म, सित-पीतादि बिन्दुओं के द्वारा संचार करनेवाली वायुका परिज्ञान, नाड़ीशद्धि, नाड़ीमें पवनके बहनेका काल और वेध ( परके मृत अथवा जीवित शरीरमें प्रवेश ); इत्यादिका विचार किया गया है । अन्त में वेध-अनेक प्रकारके पुष्पों, कपूर आदि द्रव्यों तथा भ्रमर, पतंगों, पक्षियों एवं मनुष्य व घोड़ा आदिके शरीरमें प्रवेश-का वर्णन करते हुए यह कहा गया है कि इस परपुरप्रवेशका फल कौतुक मात्र है । आगे कहा गया है कि वायुके संचारमें चतुर योगी कामवासना, भयानक विष, मनोजय, रोगक्ष य और शरीरकी स्थिरताको करता है। इसमें सन्देह नहीं है। जितेन्द्रिय मुनिका प्राणायामसे सैकड़ों भवोंका संचित पाप दो घटिकाओं ( मुहूर्त मात्र ) में विलीन हो जाता है ( 1342-1455 )। २७. प्रत्याहार-यहाँ प्रत्याहारके स्वरूपको प्रकट करते हुए कहा गया है कि इन्द्रियों के साथ मनको इन्द्रियविषयोंकी ओरसे खींचकर उसे इच्छानुसार जहाँ धारण किया जाता है उसका नाम प्रत्याहार है। आगे समाधिकी सिद्धि के लिए प्रत्याहारकी प्रशंसा करते हुए प्राणायामको मनकी अस्वस्थता का कारण व मुक्तिका बाधक कहा गया है। सूत्र में प्राणायामसे सम्भव अतिरिक्त फलके न कहे जानेसे ग्रन्थकारने यहाँ उसके लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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