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प्रस्तावना
येन येनैव भावेन युज्यते यन्त्रवाहकः ।
तन्मयस्तत्र तत्रापि विश्वरूपो मणिर्यथा ॥-योगसारप्राभृत ९-५१ ये श्लोक भी परमात्मप्रकाशगत निम्न दोहाके छायानुवाद-जैसे हैं
जेण सरूवि झाइयइ अप्पा एहु अणंतु ।।
तेण सरूवि परिणवइ जइ फलिहउ मणिमंतु ॥ २-१७३ ७. तत्त्वानुशासनमें भावध्येयके प्रसंगमें यह कहा गया है कि जब ध्याता ध्यानके बलसे अपने शरीरको शून्य करके ध्येयस्वरूपमें प्रविष्ट होनेसे स्वयं उस रूप हो जाता है तब वही उस प्रकारके ध्यानके संवेदनसे कल्पनासे रहित होता हुआ परमात्मा (शिव), गरुड़ और कामस्वरूप हो जाता है (१३५-३६)।
ज्ञानार्णवमें लगभग इसी अभिप्रायको व्यक्त करते हए यह कहा गया है कि विशुद्ध ध्यानसे कर्मको नष्ट कर देनेवाला यह आत्मा स्वयं परमात्मा है। ध्यानसे गुणोंका समुदाय प्रकट होता है तथा अनादि कर्मसमुदाय ध्वस्त होता है। तब उसे शिव, गरुड़ और काम कहा जाता है। यह कहते हुए आगे वहाँ 'उक्तं च' कह कर एक श्लोकको उद्धृत किया गया है, जिसमें उपर्युक्त अभिप्रायको पुष्ट करते हुए कहा गया है कि आत्यन्तिक स्वभावभूत अनन्त ज्ञान व सुखसे युक्त आत्मा परमात्मा, गरुड़ और काम है। आत्माकी महिमा अचिन्त्य है (1057-60)।
८. पूर्वोक्त दो श्लोकोंके अनन्तर तत्त्वानुशासनमें कहा गया है कि यह जो समरसीभाव हैध्येयरूपता है-उसे ध्याता और ध्येयका एकीकरण कहा गया है।
ज्ञानार्णवमें इसे यों कहा गया है कि जिस समरसता ( तन्मयता ) में आत्मा अभेद रूपसे परमात्मामें लीन होता है उसे आत्मा और परमात्माका एकीकरण माना गया है। दोनों ग्रन्थोंके वे श्लोक ये हैं
सोऽयं समरसीभावस्तदेकीकरणं स्मृतम् । एतदेव समाधिः स्याल्लोकद्वयपलप्रदः ॥-तत्त्वानु. १३७ सोऽयं समरसीभावस्तदेकीकरणं स्मृतम् ।।
अपथक्त्वेन यत्रात्मा लीयते परमात्मनि ॥-ज्ञाना. 1508 ९. तत्त्वानुशासनमें श्लोक २१८ के द्वारा ध्यानके ये चार प्रमुख हेतु निर्दिष्ट किये गये हैं-गुरूपदेश, श्रद्धान, सदा अभ्यास और स्थिर मन ।
यह श्लोक ज्ञानार्णवमें 'तथान्यैरप्युक्तम्' इस संकेतके साथ पाया जाता है ( 2072 )। पर वह उसकी दो प्रतियोंमें ( M. और N.) ही मिलता है, शेष प्रतियोंमें नहीं मिलता।
१०. तत्त्वानुशासनका "शुचिगुणयोगाच्छुक्लं" इत्यादिश्लोक (२२२) ज्ञानार्णवमें 'उक्तं च'के • निर्देशपूर्वक 'निष्क्रिय करणातीतं' इत्यादि श्लोकके साथ उपलब्ध होता है ( 2145 ) ।
५. ज्ञानार्णव व पुरुषार्थसिद्ध्युपाय-अमृतचन्द्र सूरि विरचित पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें निम्न श्लोकके द्वारा अभ्यन्तर परिग्रहके १४ भेद गिनाये गये हैं
मिथ्यात्व-वेद-रागास्तथैव हास्यादयश्च षड्दोषाः ।
चत्वारश्च कषायाश्चतुर्दशाभ्यन्तरा ग्रन्थाः ॥११६॥ यह श्लोक ज्ञानार्णवमें 'उक्तं च' कहकर 825 संख्याके अन्तर्गत उद्धृत किया गया है।
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