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________________ ४७८ ज्ञानार्णवः [२६.१११1421 ) अवनिवनदहनमण्डलविचलनशीलस्य तावदनिलस्य । गतिऋजुरेव मरुत्पुरविहारिणः सा तिरश्वीना ॥१११ 1422 ) पवनः प्रवेशकाले जीव इति प्रोच्यते महामतिभिः । निष्क्रमणे निर्जीवः फलमपि च तयोस्तथाभूतम् ॥११२ 1423 ) जीवे जीवति विश्वं मृते मृतं सूरिभिः समुद्दिष्टम् । सुखदुःखजयपराजयलाभालाभादिमार्गो ऽयम् ॥११३ 1424 ) संचरति यदा वायुस्तत्त्वात्तत्त्वान्तरं तदा ज्ञेयम् । यत्त्यजति तद्धि रिक्तं तत्पूर्ण यत्र संचरति ॥११४ ___1421 ) अवनिवन–अवनिवनदहनमण्डलविचलनशीलस्य पृथ्व्यब्दहनाग्निविचलनशीलस्य तावदनिलस्य गतिः ऋजुरेव सरलैव । मरुत्पुरविहारिण: सा गतिः तिरश्चीना तिर्यग् इत्यर्थः ॥१११।। अथ संज्ञान्तरेणाह । __1422 ) पवनः-पवनः प्रवेशकाले जीव इति प्रोच्यते महामतिभिः पण्डितैः । निष्क्रमणे पवनस्य निर्जीवः । तयोस्तथाभूतं फलं ज्ञातव्यम् । इति सूत्रार्थः ॥११२।। अथ पुनस्तदेवाह । 1423 ) जीवे जीवति-जीवे प्राणे जीवति निर्वहति विश्वं जीवति । मृते प्राणे अचलति मृत इति व्यपदिश्यते समुद्दिष्टं सूरिभिराचार्यः । सुखदुःखजयपराजयलाभालाभादिमार्गः अयं ज्ञातव्यः ॥११३।। अथ पुनस्तदेवाह । __1424 ) संचरति-यदा वायुस्तत्त्वात्तत्त्वान्तरं संचरति तत्पूर्णम् । यत्यजति तद्धि रिक्तम् । यत्र स्थाने संक्रमतीति सूत्रार्थः ।।११४।। अथ पुनः गमनकाले विचारमाह । पृथिवी, जल और अग्नि मण्डलोंमें विचरण करनेवाली वायुकी गति सरल (सीधी) ही है, परन्तु पवनपुरमें विचरण करनेवाली वायुकी वह गति तिरछी है ॥१११।। प्रश्नके समय वायुके प्रवेशकालमें अतिशय बुद्धिमान मनुष्य 'जीव ऐसा कहते हैं तथा उक्त पवनके निकलते समय 'निर्जीव' ऐसा कहते हैं। उन दोनोंका फल भी उसी प्रकारका है ॥११२॥ 'जीव' कहनेपर 'विश्व जीता है' तथा 'मृत' कहनेपर 'विश्व निर्जीव है' ऐसा आचार्योंके द्वारा कहा जाता है। यह सुख, दुख, जय, पराजय, लाभ और अलाभ आदिका मार्ग है ॥११३॥ वायु जब एक तत्त्वको छोड़कर दूसरे तत्त्वपर संचार करती है तब वह जिस तत्त्वको छोड़ती है उसे रिक्त और जिस तत्त्वपर वह संचार करती है उसे पूर्ण जानना चाहिए ॥११४।। १. MS R तथा ज्ञेयम् । २. All others except PS संक्रमति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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