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________________ -२६] २६. प्राणायामः 1324 ) पूर्वाशाभिमुखः साक्षादुत्तराभिमुखो ऽथ वा । प्रसन्नवदनो ध्याता ध्यानकाले प्रशस्यते ॥२३॥ अथवा-२ 1325 ) चरणज्ञानसंपन्ना जिताक्षा वीतमत्सराः । प्रागनेकास्ववस्थासु संप्राप्ता यमिनः शिवम् ॥२४ 1326 ) मुख्योपचारभेदेन द्वौ मुनी स्वामिनौ मतौ । अप्रमत्तप्रमत्ताख्यौ धर्मस्यैतौ यथायथम् ॥२५ 1327 ) अप्रमत्तः सुसंस्थानो वज्रकायो वशी स्थिरः । पूर्ववित्संवृतो धीरो ध्याता संपूर्णलक्षणः ॥२६ 1324 ) पूर्वाशाभिमुखः-ध्यानकाले ध्याता प्रशस्यते। कीदृशः । पूर्वाशाभिमुखः पूर्वदिङ्मुखः । वा अथवा । उत्तराभिमुखः । कीदृशः । प्रसन्नवदनः । इति सूत्रार्थः ॥२३।। अथवा । 1325 ) चरणज्ञान-यमिनो यतयः शिवं संप्राप्ताः। कीदृशाः । चरणज्ञानसंपन्नाः । पुनः कीदृशाः । जिताक्षाः जितेन्द्रियाः । पुनः कीदृशाः । वीतविभ्रमाः* नष्टभ्रमाः । प्रागनेकासु अवस्थासु शिवं प्राप्ताः । इति सूत्रार्थः ।।२४।। अथ ध्यानस्य स्वामिनावाह । 1326 ) मुख्योपचार-धर्मस्यैतौ द्वौ मुनी यथायथं यथाप्रकारं स्वामिनौ मतौ। कौ द्वौ । अप्रमत्तः प्रमत्तश्च । केन । मुख्योपचारभेदेन मुख्यगौणभेदेन। इति सूत्रार्थः ॥२५।। अथ ध्यातुलक्षणमाह। _1327 ) अप्रमत्तः-सुसंस्थानः सुष्ठु शरीरावयवः । पूर्ववित् पूर्ववेत्ता। शेष सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥२६॥ धर्मध्यानस्य श्रुतमाह। जो ध्याता प्रसन्नमुख होता हुआ ध्यानके समय पूर्व दिशाके अभिमुख अथवा उत्तर दिशाके अभिमुख होता है वह प्रशंसाका भाजन होता है। तात्पर्य यह कि ध्यानके समय पूर्व अथवा उत्तरकी ओर मुख करके स्थित होना उत्तम माना गया है ॥२३॥ अथवा-सम्यक्चारित्र व सम्यग्ज्ञानसे सम्पन्न, इन्द्रियोंके विजेता और मात्सर्यभावसे रहित मुनिजन पूर्वकालमें अनेक अवस्थाओंमें मुक्तिको प्राप्त हुए हैं-वे पूर्वोत्तरदिशाभेदादिके विना भी उत्कृष्ट ध्यानके आश्रयसे मुक्तिको प्राप्त हुए हैं ॥२४॥ यथायोग्य मुख्य व उपचारकी अपेक्षा अप्रमत्त और प्रमत्त नामके ये दो मुनि धर्मध्यानके स्वामी माने गये हैं ।।२५।। जो अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि उत्तम संस्थान ( समचतुरस्र आदि ३) से सहित, वज्रमय शरीरसे संयुक्त ( वज्रवृषभ आदि तीन उत्तम संहननोंमें से किसी एकसे संयुक्त), जितेन्द्रिय, दृढ़, पूर्वश्रुतका ज्ञाता, मिथ्यादर्शनादि आस्रवोंसे रहित और धैर्यशाली हो उसे ध्यानके सम्पूर्ण लक्षणोंसे युक्त ध्याता जानना चाहिए ॥२६।। १. S F Kx Y R अपि for अय। २. PM अथवा। ३. M N L T वीतविभ्रमाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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