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________________ ४५२ ज्ञानार्णवः 1320 ) अविक्षिप्तं यदा चेतः स्वतत्त्वाभिमुखं भवेत् । मुनेस्तदेव निर्विघ्ना ध्यान सिद्धिरुदाहृता ॥ १९ 1321 ) स्थानासनविधानानि ध्यानसिद्धेर्निबन्धनम् । नैकं मुक्त्वा मुनेः साक्षाद्विक्षेपरहितं मनः || २० 1322 ) संविग्नः संवृतो धीरः स्थिरात्मा निर्मलाशयः । सर्वावस्थासु सर्वत्र सदैवं ध्यातुमर्हति ॥ २१ 1323 ) विजने जनसंकीर्णे सुस्थिते दुःस्थिते ऽपि वा । यदि धत्ते स्थिरं चित्तं न तदास्ति निषेधनम् ॥ २२ 1320 ) अविक्षिप्तं - यदा चेतः स्वतत्त्वाभिमुखं भवेत् अवक्षिप्तम्" । मुनेर्ज्ञाततत्त्वस्य ध्यानसिद्धिरुदाहृता कथिता । तदैव * निर्विघ्नो भवेदिति सूत्रार्थः ||१९|| अथ पुनर्ध्यानस्वरूपमाह । [ २६.१२ 1321 ) स्थानासन - ध्यानसिद्धेः स्थानासनविधानानि पूर्वोक्तस्वरूपाणि निबन्धनं कारणम् । मुनेः साक्षाद्विक्षेपरहितम् एकं न मनो मुक्त्वा । इति सूत्रार्थः ||२०|| अथ ध्यानार्ह - पुरुषमाह । 1322 ) संविग्नः - स सर्वत्र सदैव ध्यातुमर्हति ध्यानयोग्यः [ भवति ] । कीदृशः । संविग्नः संवेगसहितः । संवृतः संवृतेन्द्रियः । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ||२१|| अथ पुनरेतदेवाह । 1323) विजने - यदि स्थिरं चित्तं धत्ते तदा निषेधनं नास्ति । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ||२२|| अथ ध्यानकालासनमाह । मुनिका मन भ्रान्तिसे रहित होकर जब आत्मस्वरूपके सम्मुख होता है तभी उसके ध्यानकी सिद्धि निर्बाध कही गयी है || १९ ॥ स्थान, आसन और विधि ये ध्यानके कारण हैं, इनमेंसे किसी एक कारणको भी छोड़कर मुनिका मन भ्रान्ति और क्षोभसे रहित नहीं हो सकता है ||२०|| संसारसे भयभीत, धैर्यशाली, मिध्यात्वादि आस्रवोंसे रहित, दृढ़ और निर्मल परिणामवाला साधु सदा, सर्वत्र और सब ही अवस्थाओं में ध्यानके योग्य ( समर्थ ) होता है ||२१|| Jain Education International यदि चित्त स्थिरताको प्राप्त कर चुका है तो चाहे एकान्त स्थान हो और चाहे वह जनोंसे व्याप्त भी हो, इसी प्रकार चाहे सुखकी अवस्था में हो और चाहे विपत्ति से ग्रस्त हो; किन्तु योगी के ध्यानका निषेध नहीं है-चित्तके स्थिर हो जानेपर वह सर्वत्र और सब ही अवस्थाओं में निर्विघ्नतासे ध्यान कर सकता है ||२२|| १. All others except PL F तदैव । २. SFKXY R सर्वदा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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