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________________ -१०] २२. साम्यवैभवम् ३९९ 1154 ) भावयस्व तथात्मानं समत्वेनातिनिर्भरम् । न यथा द्वेषरागाभ्यां गृह्णात्यर्थकदम्बकम् ॥८ 1155 ) रागादिविपिनं भीमं मोहशार्दूलपालितम् ।। दग्धं मुनिमहावीरैः साम्यधूमध्वजार्चिषा ॥९ 1156 ) मोहपङ्क परिक्षीणे शीर्णे रागादिबन्धने । नृणां हृदि पदं धत्ते साम्यश्रीविश्ववन्दिता ॥१० साम्यपानीये शुद्धानाम् । पुनः कीदृशां सताम् । ज्ञानैकचक्षुषां ज्ञानैकलोचनानाम् । इति सूत्रार्थः ।।७।। अथ शमसद्भावे रागद्वेषाभावमाह । 1154) भावयस्व हे जीव, तथात्मानं भावयस्व चिन्तयस्व। केन। अतिनिर्भरं बहभावं , शमत्वेनोपशमत्वेन । यथा अर्थकदम्बकं परिग्रहादिसमूहं रागद्वेषाभ्यां न गृह्णाति, तद्ग्रहणं न करोतीति सूत्रार्थः ।।८।। अथ पुनः साम्यसाध्यमाह ।। _1155 ) रागादिविपिनं-मुनिमहावीरैर्मुनिमहासुभटैः रागादिविपिनं वनं दग्धं ज्वालितम् । कया। साम्यधूमध्वजाचिषा साम्याग्निज्वालया। कीदृशं रागादिविपिनम् । भीममोहशार्दूलपालितं रौद्रमोहव्याघ्रपालितम् । इति सूत्रार्थः ।।९।। अथ मोहरागादिहीने साम्यतामाह । 1156 ) मोहपङ्के–साम्यश्रीरुपशमश्रीणां हृदि पदं स्थानं धत्ते। कीदृशी साम्यश्रीः । विश्ववन्दिता जगत्पूजिता। क्व सति । मोहपके परिक्षीणे । पुनः वव सति। रागादिबन्धने शीर्णे विनश्वरे सतीति सूत्रार्थ: ॥१०॥ अथ पुनः साम्यफलमाह। प्राप्त हुए हैं उनकी अनन्तज्ञानादिरूप राज्यलक्ष्मी इस जन्ममें सखी ( सहचारिणी) होती है उन्हें इसी जन्ममें मुक्ति प्राप्त हो जाती है ॥७॥ हे भव्य ! तू अपनी आत्माका पूर्णतया समताभावस्वरूपसे इस प्रकार चिन्तन कर कि जिससे वह पदार्थसमूहको राग-द्वेषके साथ ग्रहण नहीं करे-किसीसे राग और किसीसे द्वेष न करे ॥८॥ मुनिरूप महायोद्धाओंने मोहरूप सिंहसे संरक्षित भयानक रागादिरूप वनको समताभावरूप अग्निकी ज्वालाके द्वारा भस्म किया है ॥९॥ जब मनुष्योंका मोहरूप कीचड़ नष्ट हो जाता है तथा रागादिरूप बन्धन टूट जाता है तब उनके हृदयमें समस्त लोकसे वन्दित समतारूप लक्ष्मी पदार्पण करती है। अभिप्राय यह है कि जब तक प्राणीका मोह नष्ट नहीं होता है तबतक राग-द्वेष भी नष्ट नहीं होते हैं और जबतक वे राग-द्वेष नष्ट नहीं होते तबतक उसके हृदय में समताभावको स्थान नहीं मिलता है। इसलिए उस समताभावको प्राप्त करने के लिए राग-द्वेष और मोहको नष्ट करना चाहिए ॥१०॥ १. M शाम्य for साम्य everywhere | २. P शमश्री । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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