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________________ ३७८ ज्ञानार्णवः [ २०.१५ 1087 ) पादपङ्कजसलीनं तस्यैतद्भवनत्रयम् । __यस्य चित्तं स्थिरीभूय स्वस्वरूपे लयं गतम् ॥१५ 1088 ) मनः कृत्वाश निःसंगं निःशेषविषयच्युतम् । मुनिभृङ्गः समालीढं मुक्तेर्वदनपङ्कजम् ॥१६ 1089 ) यथा यथा मनःशुद्धिर्मुनेः साक्षात्प्रजायते । तथा तथा विवेकश्रीहदि धत्ते स्थिरं पदम् ॥१७ 1090 ) चित्तशुद्धिमनासाद्य मोक्तुं यः सम्यगिच्छति । मृततृष्णातरङ्गिण्यां स पिवत्यम्बु केवलम् ॥१८ 1087 ) पादपङ्कज-तस्य पुंसः एतद् भुवनत्रयं जगत्त्रयं पादपङ्कजसलीनं चरणकमलस्थितम् । यत्तदोनित्याभिसंबन्धात् । यस्य चित्तं स्वस्वरूपे आत्मस्वरूपे लयं गतं ध्यानत्वेन प्राप्तम् । इति सूत्रार्थः ।।१५।। अथ मनोनिःसंगफलमाह । 1088 ) मनः कृत्वा-मुनिभृङ्गैर्मुक्तेर्वदनपङ्कजं मुखकमलं समालीनम् आश्रितम्। कि कृत्वा । मनः "सुनिःसंगं कृत्वा । कीदृशं मनः । निःशेषविषयच्युतं समस्तविषयरहितम् । इति सूत्रार्थः ।।१६।। अथ मनःशुद्धिविवेकस्य कारणत्वेनाह। 1089 ) यथा यथा-यथा यथा मुनेतितत्त्वस्य साक्षान्मनःशुद्धिः, प्रजायते। तथा तथा मुनेः एव हृदि विवेकश्रीः स्थिरं पदं धत्ते। इति सूत्रार्थः ।।१७।। अथ मनःशुद्धि विना मुक्तिन भवतीत्याह। ___1090 ) चित्तशुद्धि-यः चित्तशुद्धिमनासाद्याप्राप्य मोक्तुं सम्यगिच्छति स मृगतृष्णातरङ्गिण्यां मरीचिकानद्यां केवलम् अम्बु पानीयं पिबति । इति सूत्रार्थः ।।१८।। अथ स्थिरतामाह । जिसका मन स्थिर हो करके आत्मरूपमें लीन हो गया है उसके चरण-कमलमें ये तीनों लोक लीन हो गये हैं-वह मुक्त होकर तीनों लोकोंका स्वामी बन जाता है ॥१५॥ __ मुनिरूप भ्रमर मनको परिग्रहसे अतिशय रहित (निर्मम ) एवं सब विषयोंसे विमुख करके मुक्तिरूप लक्ष्मीके मुखरूप कमलका आलिंगन करते हैं ॥१६॥ जैसे-जैसे मुनिके मनकी शुद्धि प्रगटमें होती जाती है वैसे ही वैसे विवेकरूप लक्ष्मी हृदयमें स्थिर स्थानको धारण करती है। अभिप्राय यह है कि विवेककी स्थिरता मनकी शुद्धिसे ही होती है ॥१७॥ जो जीव मनकी निर्मलताको न प्राप्त करके उसके विना ही-भली भाँति मुक्त होना चाहता है वह मृगतृष्णारूप नदीमें केवल पानीको पीता है । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार मरुभूमिमें बालूको जल जानकर मृग अपनी तृष्णा ( प्यास ) को शान्त करनेकी इच्छासे दोडते हैं, परन्तु उन्हें कहीं भी जल प्राप्त नहीं होता है। उसी प्रकार मनकी निर्मलताके बिना जो मुक्त होनेका प्रयत्न करता है उसे वह मुक्ति कभी प्राप्त नहीं हो सकती है ॥१८॥ १. PM L F कृत्वासुनिःसङ्गं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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