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________________ -१४ ] २०. मनोव्यापारप्रतिपादनम् ३७७ 1083 ) एक एव मनोरोधः सर्वाभ्युदयसाधकः । यमेवालम्ब्य संप्राप्ता योगिनस्तत्त्वनिश्चयम् ॥११ 1084 ) पृथक्करोति यो धीरः स्वपरावेकतां गतौ । स चापलं निगृह्णाति पूर्व मेवान्तरात्मनः ॥१२ 1085 ) मनःशुद्धयैव शुद्धिः स्यादेहिनां नात्र संशयः । वृथा तद्व्यतिरेकेण कायस्येयं' कदर्थना ॥१३ 1056 ) ध्यानसिद्धिं मनःशुद्धिः करोत्येव न केवलम् । विच्छिनत्यपि निःशङ्का कर्मजालानिं देहिनाम् ॥१४ ___1083 ) एक एव मनोरोधः-मनोरोध एक एव सर्वाभ्युदयसाधक: सर्वकल्याणकारकः यं मनोरोधमेवालम्ब्य प्राप्य योगिनः तत्त्वनिश्चयं परमात्मस्वरूपं प्राप्ताः। इति सूत्रार्थः ।।११।। अथ स्वपरयोविवेचनमाह। ___1084 ) पृथक्करोति-यो धीरो निःप्रकम्पः स्वपरौ आत्मकर्मणी पृथक्करोति । कीदृशौ स्वपरौ। एकतां गतौ। स एव पुमान् पूर्वमेव प्रागेवान्तरात्मनः चापलं निगृह्णाति दूरीकरोति । इति सूत्रार्थः ।।१२।। अथ मनःशुद्ध्या सर्व शुध्यतीत्याह । __1085 ) मनःशुद्धचैव-देहिनां प्राणिनाम् । अत्र जगति मनःशुद्धयैव शुद्धिः स्यात् न संशयः । तद्व्यतिरेकेण मनःशुद्धिव्यतिरेकेण कायस्य शरीरस्य इयं कदर्थना वेदना वृथा निष्फला स्यात्, इति सूत्रार्थः ।।१३।। अथ मनःशुद्धौ ध्यानशुद्धिमाह। 1086 ) ध्यानसिद्धिं-मनःशुद्धि: ध्यानशुद्धि* केवलं न करोत्येव । देहिनां कर्मजालानि । अपि पक्षान्तरे। विच्छिनत्ति निकृन्तति निःशङ्कम् इति क्रियाविशेषणम् ॥१४॥ अथ स्थिरचित्तस्य जगत्त्रयं पादलीनमाह। जिस मनके नियन्त्रणका आश्रय लेकर योगी जन तत्त्वके निश्चयको प्राप्त हुए हैं, एक मात्र वह मनका नियन्त्रण ही समस्त सम्पत्तियोंको सिद्ध करनेवाला है ॥११॥ जो धीर पुरुष अभेदरूपताको प्राप्त हुए स्व (आत्मा) और पर पदार्थ इन दोनोंको प्रथक कर देता है उन्हें भिन्न समझने लगता है-वह अन्तःकरणकी चंचलताको पूर्व में ही नष्ट कर देता है ।।१२।। प्राणियोंकी शद्धि-कर्ममलसे रहितता-इस मनकी शुद्धिसे ही होती है, इसमें सन्देह नहीं है । और उस मनशुद्धिके विना-रागद्वेषकी शान्तिके विना-तपश्चरणादिसे होनेवाला यह कायक्लेश व्यर्थ होता है-उससे अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध नहीं होता ॥१३॥ मनकी शुद्धि केवल ध्यानकी शुद्धिको ही नहीं करती है, किन्तु वह प्राणियोंके कर्मसमूहोंको भी छिन्न-भिन्न ( नष्ट ) करती है ॥१४॥ १.SY R कायस्यैव कदर्थनं। २. All others except P ध्यानशुद्धि । ३. All others except PM N T निःशङ्क। ४. M N जालादि । ४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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