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________________ ३४० ज्ञानार्णवः [१८.१२९ 1027 ) विघ्नबीजं विपन्मूलमन्यापेक्षं भयास्पदम् । करणग्राह्यमेतद्धि' यदक्षार्थोत्थितं सुखम् ॥१२९ 1028 ) जगद्वञ्चनचातुर्य विषयाणां न केवलम् । नरान्नरकपाताले नेतुमप्यतिकौशलम् ॥१३० 1029 ) निसर्गचपलैश्चित्रविषयैर्वश्चितं जगत् । प्रत्याशा निदयेष्वेषु कीदृशी पुण्यकर्मणाम् ॥१३१ 1027) विघ्नबीज-पुनः कीदृशम् । विघ्नबीजं विघ्नोत्पादकम् । पुनः कीदृशम् । विपन्मूलं विपदामापदामुत्पत्तिकम् । पुनः कीदृशम् । अन्यापेक्षं परद्रव्यसापेक्षम् । भयास्पदं भयस्थानम् । पुनः कीदृशम् । करणमनोवाक्कायग्राह्यम् । हि निश्चितम् । एतत् यत् अक्षार्थोत्थितं इन्द्रियव्यापारजनितं सुखम् । इति सूत्रार्थः ॥१२९।। अथ पुनर्विषयाणां स्वरूपमाह । ___1028) जगद्वञ्चन-विषयाणां न केवलं जगद्वञ्चनचातुर्य जगतो वञ्चनदक्षम् । नरकपाताले नरान् मनुष्यान् नेतुमपि प्राप्तुमपि अतिकौशलम् अतिचतुरम् । इति सूत्रार्थः ॥१३०॥ अथ पुनाविषयाणा स्वरूपमाह। 1029) निसर्गचपलैः-विषयैः इन्द्रियव्यापारैः जगढञ्चितं विप्रतारितम् । कीदृशैः। निसर्गचपलैः स्वभावचञ्चलैः । पुनः कीदृशैः। चित्रैः नानाप्रकारैः । एषु विषयेषु निर्दयेषु पुण्यकर्मणाम् । कोदृशी । प्रत्याशा निकटता । इति सूत्रार्थः ॥१३१॥ अथ विषयैः लोभादिकं जन्यते इत्याह । कपाटोंके सदृश, बाधाका कारण, विपत्तिकी जड़, अन्य बाह्य सामग्रीकी अपेक्षा रखनेवाला, भयका स्थान और इन्द्रियोंसे ही ग्रहण किया जानेवाला है ॥१२८-२९॥ इन इन्द्रिय विषयोंके केवल लोकको ठगनेकी ही चतुरता नहीं है, बल्कि उनमें मनुष्योंको नरकरूप पाताल में ले जानेकी भी कुशलता है। तात्पर्य यह कि ये इन्द्रियविषय प्रथम तो प्राणियोंको इच्छानुसार प्राप्त ही नहीं होते, दूसरे यदि वे कुछ प्राप्त भी हुए तो शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त उनमें आसक्त होनेसे जो पाप कर्म संचित होता है उसके कारण नरकादि दुर्गतिकी प्राप्ति भी होती है ॥१३०॥ स्वभावसे चंचल ( अस्थिर ) और अनेक अवस्थाओंको धारण करनेवाले वे विषय लोकके प्राणियोंको ठगा करते हैं । ऐसे दुष्ट स्वभाववाले इन विषयों में पवित्र आचरण करनेवाले संयमीजनकी फिरसे इच्छा किस प्रकार होती है ? तात्पर्य यह कि प्राणियोंको जब उन विषयोंकी प्राप्ति अपने-अपने पुण्य कर्म के अनुसार होती है तब उनके नष्ट हो जानेपर पुन:पुनः उनकी इच्छा करना योग्य नहीं है ॥१३१॥ १. P करुणग्राह्यदुःखाग्निं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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