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________________ - १०६ ] १८. अक्षविषयनिरोधः 1002 ) मुग्धप्रतारणपरायणमुजिहीते यत्पाटवं कपटलम्पटचित्तवृत्ते । जीर्यत्युपप्लुर्वश्यमेहाप्युकृत्वा नापथ्यभोजनमिवामयमायतोजत् ।। ( ? ) १०४*४] || माया । 1003 ) नयन्ति विफलं जन्म प्रयासैर्मृत्युगोचरैः । 1 वराकाः प्राणिनो जस्रं लोभादप्राप्तवाञ्छिताः ॥ १०५ 1004 ) शाकेनोपीच्छया जातु न भर्तुमुदरं क्षमाः । लोभात्तथापि वाञ्छन्ति नराचक्रेश्वरश्रियम् ॥१०६ 1002 ) मुग्धप्रतारण - अस्य श्लोकस्य शुद्धः पाठः नोपलभ्यते । अतो ऽस्य टीकापि कतु न पर्यंते ||१०४४ ॥ ] माया | अथ मायानन्तरं क्रमायातलोभं निदर्शयति । 1003 ) नयन्ति - प्राणिनो वराकाः अजस्रं निरन्तरं जन्म विफलं निष्फलं नयन्ति प्राप्नुवन्ति । कैः । प्रयासैः उद्यमैः । कीदृशैः । मृत्युगोचरैः । कीदृशाः प्राणिनः । अप्राप्तवाञ्छिताः । कस्मात् । लोभादिति सूत्रार्थः ॥ १०५ ॥ अथ लोभादुदरंभरित्वमाह । ३३३ 1004) शांकेनापि - नराः मनुष्याः । जातु कदाचित् । शाकेनापि व्यञ्जनेनापि इच्छया उदरं भतु न क्षमाः न समर्थाः । तथापि नराः लोभात् चक्रेश्वरश्रियं चक्रवतिलक्ष्मी वाञ्छन्ति । इति सूत्रार्थः ॥ १०६ ॥ अथ लोभवतो निन्द्यकर्माह । आर्या । इस इलोकका संस्कृत रूप अशुद्ध होनेसे इसका बराबर अर्थ देना असंभव है। ॥१०४*४॥] माया कषायका वर्णन समाप्त हुआ || कितने ही दीन प्राणी निरन्तर लोभकषायके वशीभूत होकर अभीष्ट पदार्थोंको न प्राप्त करते हुए मृत्यु के कारणभूत परिश्रम से अपने जन्मको निष्फल करते हैं । विशेषार्थ - अभिप्राय यह है कि मनुष्य लोभकषायके वशमें होकर अभीष्ट धन-सम्पत्ति आदिको प्राप्त करने के लिए देश-विदेशमें परिभ्रमण करता हुआ उसके लिए घोर परिश्रम करता है और दुखी होता है । यहाँ तक कि कभी-कभी प्राणी अपनी आशाकी पूर्ति के लिए दुष्कर कार्यको करते हुए प्राणों को भी दे देता है। लोभी जीव यह नहीं सोचता है कि प्राणीको जो अभीष्ट सुखकी सामग्री प्राप्त होती है वह उसके पूर्वोपार्जित कर्मके अनुसार प्राप्त होती है - केवल परिश्रम - से ही वह नहीं प्राप्त होती है । इसीलिए पूर्व पुण्यके बिना उसका वह सब परिश्रम व्यर्थ होता है ॥१०५॥ जो मनुष्य यद्यपि इच्छा के अनुसार शाकसे भी अपने उदरको पूर्ण करने के लिए समर्थ नहीं होते हैं तो भी वे लोभके वश चक्रवर्तीकी लक्ष्मीकी इच्छा किया करते हैं || १०६ || १. M N स्तोकेनापीच्छया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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