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प्रस्तावना
२५ शुभ ध्यानका फल जहाँ स्वर्ग में देव या इन्द्र के वैभवकी प्राप्ति है वहाँ दुर्ष्यानका फल नरकादि दुर्गतिकी प्राप्ति है । तीसरे शुद्धोपयोगकी प्राप्तिका फल ज्ञानराज्य ( कैवल्य ) की प्राप्ति है ।
इस प्रकारसे यहाँ यह कहा गया है कि तत्त्वके ज्ञाता आत्महितैषी पूर्वोक्त चार पुरुषार्थोंमें प्रथम तीन को छोड़कर अन्तिम जो मोक्ष पुरुषार्थ है उसीके सिद्ध करने में प्रयत्नशील रहा करते हैं । अनन्त ज्ञान-दर्श - नादिसे सम्पन्न वह मोक्ष उस शाश्वतिक एवं निर्बाध सुखका कारण है, जो समस्त कर्मोंके क्षयसे प्राप्त होता है । वह कर्मक्षय सम्यग्ज्ञान के बिना सम्भव नहीं है, तथा सम्यग्ज्ञानकी सिद्धि ध्यानके बिना सम्भव नहीं है । इसीलिए मुक्ति के इच्छुक भव्य जीवोंको उस ध्यानका आश्रय लेना चाहिए तथा उसमें स्थिरता प्राप्त कर लेने के लिए मोह और विषयासक्तिको छोड़ देना चाहिए ( 247-83 ) ।
४. ध्यानगुण-दोष --- यहाँ प्रथमतः उस ध्यानके लक्षणके कहनेकी प्रतिज्ञा की गयी है जो पूर्व, प्रकीर्णक और अंग श्रुतमें विस्तारसे प्ररूपित है । पश्चात् ध्याता, ध्यान, ध्येय और फल इन चार में ध्याताके स्वरूपका विचार करते हुए यह कहा गया है कि जो मुमुक्षु जन्म-मरणस्वरूप संसारसे विरक्त होकर स्थिरता
प्रशंसा के योग्य है । इस ध्यानकी सिद्धि जिस प्रकार उसी प्रकार वह मिथ्यादृष्टि साधुओंके भी सम्भव नहीं आदि कुछ एकान्तवादोंकी समीक्षा करते हुए यह कहा समस्त रूपमें मुक्ति के साधक हैं । उनमें से कितने ही
पूर्व इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर चुका है वह ध्याता प्रमादसे अभिभूत संयमहीन गृहस्थोंके सम्भव नहीं है है | प्रसंगवश यहाँ नित्यत्व, अनित्यत्व एवं विज्ञानाद्वैत गया है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये मिथ्यादृष्टि किसी एक को और अन्य कितने ही उनमें से किन्हीं दोको ही मुक्तिका साधक मानते हैं । कुछ ऐसे भी मिथ्यादृष्टि हैं जो उन तीनोंमें से किसीको भी मुक्तिका साधन नहीं मानते हैं । इस प्रकारसे यहाँ सात ( ३ + ३ + १ ) मिध्यादृष्टियोंका निर्देश किया गया है । ध्यानशास्त्र में केवल उक्त मिध्यादृष्टियोंका ही निषेध नहीं किया गया, बल्कि जिनाशा के प्रतिकूल प्रवृत्ति करनेवाले अस्थिरचित्त मुनियोंका भी निषेध किया गया है । इस प्रकारसे यहाँ ध्यानके योग्य-अयोग्य आचरणका विस्तारसे विबेचन करते हुए यहाँ तक कहा गया
कि जो साधुवेषको जीविकाका साधन बनाते हैं उन्हें लज्जा आनी चाहिए। उनका यह कृत्य आजीविका के लिए माताको वेश्या बनाने जैसा है । मनुष्य पर्याय व लोकपूज्य मुनि धर्मको पाकर बुद्धिमान् आत्महितैषियों को यायका विचार करना चाहिए 284-353)
५. योगी प्रशंसा - यहाँ संयमी योगीकी प्रशंसा करते हुए यह कहा गया है कि कामभोगोंसे विरक्त होकर शरीर से भी जो निःस्पृह हो चुका है और इसीलिए जिसका चित्त इतना स्थिर हो चुका है कि जो प्राण जानेपर भी स्वीकृत संयमको नहीं छोड़ता है, वस्तुतः वही ध्याता प्रशंसा के योग्य है । ऐसे ध्याताको यहाँ ध्यान धनेश्वर कहा गया है । इत्यादि प्रकारसे यहाँ योगी की प्रशंसा करते हुए यह भी कहा गया है कि पवित्र आचारसे उपलक्षित मुनिजन ही ध्यानसिद्धि के पात्र कहे गये हैं ( 354-82 )
६. दर्शन विशुद्धि - यहाँ सम्यग्दर्शनकी महिमाको प्रकट करते लक्ष्मीकी प्राप्ति सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रके आश्रयसे ही होती है। तत्त्व प्रख्यापनका नाम सम्यग्ज्ञान और पापक्रियाकी निवृत्तिका नाम रत्नत्रय स्वरूपको प्रकट करते हुए आगे जीवादि पदार्थोंके श्रद्धानरूप किया गया है । तत्पश्चात् उसके दो व तीन भेदों का निर्देश करते हुए सूचना की गयी है । आगे उसके पचीस दोषोंका निर्देश करते हुए क्रमसे जीव-अजीवादि पदार्थोंकी प्ररूपणा की गयी
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७. ज्ञानोपयोग - यहाँ ज्ञानके स्वरूपको दिखलाते हुए यह कहा गया है कि जिसमें तीनों काल
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हुए यह कहा गया है कि मुक्तिइनमें तत्त्वरुचिका नाम सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र है । इस प्रकार संक्षेपमें उस सम्यग्दर्शनका लक्षण पुनः निर्दिष्ट सराग और वीतराग सम्यग्दर्शनकी भी
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