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________________ २४ ज्ञानार्णवः महत्त्वको प्रकट करते हए क्रमसे देवनन्दी (पूज्यपाद ). जिनसेन और भद्राकलंककी वाणीका कीर्तन किया गया है । तत्पश्चात् ग्रन्थरचनाके उद्देशको प्रकट करते हुए यह कहा गया है कि मैं संसारतापसे सन्तप्त अपनेको योगीन्द्रोंके द्वारा सेवित मार्गमें-योगके अनुष्ठानमें-नियोजित करता हूँ। ग्रन्थकी यह रचना न तो त्वके अभिमानवश की जा रही है और न उससे मुझे ख्यातिलाभकी भी कोई इच्छा है। इस प्रकारसे ग्रन्थरचनाकी भूमिकाको बाँधते हुए ग्रन्थकार द्वारा समीचीन व असमीचीन शास्त्ररचनाके गुणावगुणका भी विचार किया गया है ( 1.49 )। २. द्वादश भावना-मोक्ष-महलकी सोपान-पंक्तिके समान अनित्यत्वादिरूप बारह भावनाएँ अनेक ग्रन्थोंमें चचित हैं। इनके निरन्तर चिन्तनसे प्राणी सचेतन स्त्री-पुत्रादि और अचेतन धनसम्पत्ति आदि की भिन्नता और नश्वरताको जानकर उनसे राग-द्वेष न करता हुआ समताभावको प्राप्त होता है, जो दर्शनविशुद्धिका प्रमुख कारण है । इस प्रकारसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके अभिमुख होकर वह मुमुक्षु भव्य ध्यानपर आरूढ़ होता है ( 50-246)। ३. ध्यानलक्षण-यहाँ ध्यानके स्वरूप व उसके साधनकी प्रक्रियाको प्रकट करते हुए यह कहा गया है कि मनुष्य पर्याय काकतालीय न्यायसे दुष्प्राप्य है। वह यदि संयोगसे प्राप्त हो गयी है तो उसके आश्रयसे पुरुषार्थको सिद्ध कर लेना चाहिए। यही उस मनुष्य पर्यायकी प्राप्तिका फल है। पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके भेदसे चार प्रकारका है। इनमें प्रथम तीन विनश्वर व संसारपरिभ्रमणके कारण होनेसे हेय हैं। यहाँ इन तीन पुरुषार्थों में धर्मपुरुषार्थको भी जो संसारपरिभ्रमणका कारण व इसीसे हेय कहा गया है वह देवपूजा व गुरुपास्ति आदिरूप गृहस्थधर्मको लक्ष्यमें रखकर ही कहा गया है। कारण यह कि इस प्रकारका धर्म स्वर्गादि अभ्युदयका ही साधक है, न कि निराकुल सुखमय मोक्षका । निराकुल सुखका साधक तो आत्माका स्वभावभूत रत्नत्रयस्वरूप धर्म ही सम्भव है। इसे लक्ष्य में रखकर जबतक उस रत्नत्रयस्वरूप स्वाभाविक धर्म की प्राप्ति सम्भव नहीं है तबतक नरकादि दुर्गतिसे बचने के लिए उक्त गृहस्थधर्मका परिपालन करना भी हितकर है । इस वस्तुस्थितिको समझ लेना चाहिए। आगे इसी प्रकरण में स्वयं ग्रन्थकारने इसी अभिप्रायको व्यक्त करते हुए जीवके आशयको पुण्याशय, अशुभाशय और शुद्धोपयोगके भेदसे तीन प्रकारका बतलाया है तथा यह निर्देश किया है कि उनमें पुण्याशयके वशीभूत होकर शुद्ध लेश्याका आलम्बन लेता हुआ जो भव्य जीव वस्तुस्वरूपका चिन्तन करता है उसके प्रशस्त ध्यान होता है। इसके विपरीत पापाशयके वशीभूत होकर चिन्तन करनेवालेके असध्यान (दुान) होता है। रागादिके क्षीण हो जाने के कारण अन्तरात्माके प्रसन्न होनेपर जो आत्मस्वरूपकी प्राप्ति होती है उसे शुद्धोपयोग या शुद्ध आशय कहा गया है । १. आचार्य पूज्यपादने भी निम्न श्लोकों द्वारा इसी अभिप्रायको व्यक्त किया है अपुण्यमव्रतः पुण्यं व्रतैर्मोक्षस्तयोर्व्ययः । अव्रतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ।। अव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठितः । त्यजेत् तान्यपि संप्राप्य परमं पदमात्मनः ।।-समाधितंत्र-८३-८४ वरं व्रतैः पदं दैवं नाववतनारकम् । छाया तपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयतोर्महान् ।।-इष्टोपदेश-३ लगभग यही अभिप्राय आत्मानुशासनमें भी इस प्रकारसे प्रकट किया गया हैअशुभात् शुभामायातः शुद्धः स्यादयमागमात् । रवेरप्राप्तसंध्यस्य तमसो न समुद्गमः ॥ १२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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