SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना २३ श्रुतसागर सूरि - बहुश्रुत विद्वान् श्रुतसागर सूरि विक्रमको १६वीं शताब्दी में हुए हैं ।" ये अनेक विषयोंके प्रखर पण्डित थे । संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओंपर उनका पूरा अधिकार था । उनके द्वारा षट्प्राभृत, तत्त्वार्थसूत्र, जिनसहस्रनाम और यशस्तिलकचम्पू (अपूर्ण) आदि ग्रन्थोंपर टीका की गयी है । इन टीकाओं की अन्तिम पुष्पिकाओं या प्रशस्तियों में उन्होंने अपनेको बड़े अभिमान के साथ तर्क, व्याकरण, छन्द, अलंकार और साहित्य आदि शास्त्रोंमें तीक्ष्णबुद्धि ( त. सू. प्र. अध्यायकी अन्तिम पुष्पिका ), कलिकाल - गौतमस्वामी और उभय-भाषा कविचक्रवर्ती (द. प्रा. की अन्तिम पुष्पिका) आदि विशेषणोंसे विशेषित किया है । मोक्षप्राभृतकी टीकाके अन्तमें तो उन्होंने स्वरचित एक श्लोकके द्वारा यह भी व्यक्त किया है कि जो बुद्धिमान् उमास्वामी, समन्तभद्र, कुन्दकुन्द भट्टाकलंक, प्रभाचन्द्र, विद्यानन्द और पूज्यपादके देखनेकी मन में अभिलाषा रखता है वह त्रैविद्य धीमानोंके द्वारा नमस्कृत श्रुतसागरको देख ले । इन टीकाओं में उन्होंने कुछ अप्रसिद्ध और विचित्र पद्धतिसे निष्पन्न शब्दोंका भी सम्भवतः बुद्धिपुरस्सर उपयोग किया है । यथा - अप्पित्ति (त. वृत्ति ७-२१) पितृबीज (बो. प्रा. ५५), अण्डायिक, पोतायिक, जरायिक, रसायिक ( त. वृ. २- १४) व अपान (त. वृ. ५-१९ ) आदि । २. हिन्दी पद्यमय टीका-जैसी कि श्री डॉ. कस्तुरचन्दजी कासलीवाल के द्वारा सूचना की गयी है प्रस्तुत ज्ञानार्णवपर एक हिन्दी पद्यमय टीका संवत् १७२८ में लब्धिविनय गणिके द्वारा लिखी गयी है । उसकी एक प्रति अजमेर के भट्टारकीय शास्त्र भण्डार में और एक प्रति जयपुरके गोधोंके मन्दिर में संगृहीत है ।" ३. हिन्दी वचनिका - एक टीका पं. जयचन्द्रजी छावड़ाके द्वारा हिन्दी ( ढूंढारी) में लिखी गयी है । इस टीकाको लिखकर उन्होंने माघ सुदी पंचमी भृगुवार संवत् १८०८ में समाप्त किया है । ४. हिन्दी वचनिकाका रूपान्तर — ढूंढारी भाषामय उपर्युक्त वचनिकाका खड़ी बोली में रूपान्तर श्री पं. पन्नालालजी बाकलीवालने किया, जो मूल ग्रन्थके साथ रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला द्वारा प्रकाशित हो चुका है तथा अधिक प्रचार में आने से सम्भवतः उसके २-३ संस्करण भी निकल चुके हैं । ६. विषय - परिचय समस्त ग्रन्थ जिन ३९ प्रकरणों में विभक्त हैं उनमें क्रमसे विषयका विवेचन इस प्रकार हुआ है १. पीठिका - यहाँ सर्वप्रथम मंगलके रूपमें कृतकृत्य परमात्माको नमस्कार करते हुए आगे क्रमसे आदिनाथ, चन्द्रप्रभ, शान्तिनाथ और वर्धमान जिनेन्द्रका स्मरण किया गया है । इस प्रकारसे जो यहाँ क्रमसे पहले, आठवें, सोलहवें और चौबीसवें इन चार तीर्थंकरों की स्तुति की गयी है उससे ग्रन्थकारका आशय चौवीसों तीर्थंकरों की स्तुतिका रहा है । आगे ध्यानकी सिद्धिके लिए योगीन्द्र इन्द्रभूति ( गौतम गणधर ) को नमस्कार करते हुए प्रस्तुत ज्ञानार्णवके कहने की प्रतिज्ञा की गयी है । पश्चात् समन्तभद्रादि कवीन्द्रोंकी भारती के १. जैन साहित्य और इतिहास' पृ. ४०६ - १२ पर 'श्रुतसागर सूरि' शीर्षक, स्व. श्री पं. नाथूरामजी प्रेमीका निबन्ध | २. श्रीमत्स्वामिसमन्तभद्रममलं श्री कुन्दकुन्द । ह्वयं यो धीमान कलङ्क भट्टमपि च श्रीमत्प्रभेन्दुप्रभुम् । विद्यानन्दमपीक्षितुं कृतमनाः श्रीपूज्यपादं गुरुं वीक्षेत श्रुतसागरं सविनयात् त्रैविद्यधीमन्नुतम् ॥ ३. अपअनिति हर्षेण जीवति विकृत्या वा जीवति येन जीवः स अपानः । ४. जैन सन्देश – शोधांक १८, २६ मार्च १९६३, पृ. २६६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy