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________________ ज्ञानार्णवः सम्बन्धी अनन्त गुण-पर्यायोंसे संयुक्त पदार्थ स्फुरायमान होते हैं उसे ही यथार्थ ज्ञान माना गया है। इस प्रकार स्वाभाविक ज्ञानके लक्षणको बतलाकर आगे उसे मतिज्ञानादिके भेदसे पाँच प्रकारका निर्दिष्ट किया गया है। इन पांच ज्ञानों में भी मतिज्ञानके अवग्रहादि व बह आदिके आश्रयसे तीन सौ छत्तीस भेद दिखलाये गये हैं। इसी प्रकार अवधि और मनःपर्यय ज्ञानोंके भी दो-दो भेदोंका निर्देश करके केवलज्ञानके स्वरूपको प्रकट करते हुए उस ज्ञानके माहात्म्यको व्यक्त किया गया है ( 449-71 )। ८. अहिंसाव्रत-यहाँ सर्व सावद्यके परिहारस्वरूप चारित्रका निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि ऋषभादि जिनेन्द्रोंने उसे सामायिकादिके भेदसे सविस्तर पाँच प्रकारका कहा है। उसे सन्मति ( वर्धमान ) जिनेन्द्रने पाँच महाव्रतों, पाँच समितियों और तीन गुप्तियोंस्वरूप कहा है। आगे हिंसादि पापोंसे निवृत्तिको व्रतका लक्षण बतलाते हुए अन्य सत्यादि महावतोंके कारणभूत अहिंसा महाव्रतका विस्तारसे वर्णन किया गया है, जिसमें हिंसाको दुर्गतिका कारण और अहिंसाको ९. सत्यव्रत-यहाँ असत्य वचनको अहितकर और सत्य वचनको हितकर बतलाते हुए विविध रूपमें सत्यकी स्तुति और असत्यकी निन्दा की गयी है। जो वचन प्राणियोंका हित करनेवाला हो उसे असत्य होते हुए भी सत्य माना गया है तथा जो सत्य होते हुए भी पापोत्पादक है उसे असत्य माना गया है । असत्य भाषणका परिणाम मूकता ( गूंगापन ), बुद्धि की हीनता, मूर्खता, बहिरापन और मुखरोगिता है ( 531-72 ) १०. चौर्यपरिहार-गुणोंके भूषणस्वरूप अचौर्यव्रतके बिना मुनि मोक्षमार्गमें स्थित नहीं हो सकता, ऐसा निर्देश करते हए यहाँ चौर्यकर्मको अनेक प्रकारसे अनर्थकर सिद्ध किया गया है व अन्तमें यह गया है कि जिस धर्मरूप वृक्षकी जड़ विषयविमुखता है, शाखाएं अनेक प्रकारका संयम हैं, पत्ते यम-नियम है, पुष्प कषायोंका उपशमन हैं, फल ज्ञानकी लीलाएँ हैं, और आश्रय लेनेवाले पक्षी विद्वज्जन हैं; उस धर्मवृक्षको चौर्यकर्मके वशीभूत हुआ मुनि चौर्यकर्मरूप प्रबल अग्निके द्वारा भस्मसात् कर डालता है ( 573-92 )। ११. कामप्रकोप-जिस ब्रह्मचर्यव्रतका आश्रय लेकर योगीजन परम ब्रह्म परमात्माको प्राप्त किया करते हैं उस गहन ब्रह्मव्रतके सविस्तर कहने की प्रतिज्ञा करते हुए ग्रन्थकारने उसे दुर्बल प्राणियोंके लिए दुश्चर बतलाया है । ब्रह्मचर्यका विघातक मैथुनकर्म आपाततः रमणीय दिखता हुआ भी परिणाममें नीरस है । यहाँ मैथनके शरीरसंस्कार आदि दस भेदोंका निर्देश करते हए उन्हें छोड़ देनेकी प्रेरणा की गयी है। कामवासनाको निन्दा करते हुए यहाँ यह भी निर्देश किया गया है कि सर्पके द्वारा ईसे गये प्राणीके जहाँ सात ही वेग होते हैं वहाँ कामरूप सर्पसे कवलित प्राणीके वे भयानक दस वेग होते हैं। इन दस वेगोंका यहाँ नामोल्लेख भी किया गया है। आगे यहाँ तक कहा गया है कि कामात मनुष्य पुत्रवधू, सास, पुत्री, धाय, गुरुपत्नी, साध्वी और तिर्यचनी तकके सेवनकी इच्छा किया करता है। इसीलिए योगीजन कामके परिपाकसे भयभीत होकर संयमका सहारा लिया करते हैं ( 59 3-640 )। १२. स्त्रीस्वरूप-यहाँ स्त्रीके स्वरूपपर विचार करते हए यह कहा गया है कि कामोन्मत्त स्त्रियाँ जो अनर्थ किया करती हैं उसका शतांश भी नहीं कहा जा सकता । स्त्रियोंके वचनमें स्वभावतः अमृत, पर हृदयमें हालाहल विष हुआ करता है। पता नहीं किसने इन स्त्रियोंको रचा है। इस प्रकारसे यहाँ स्त्री जातिकी निन्दा करते हए उसे सर्पिणी व पिशाची-जैसा भयानक कहा गया है। आगे चलकर यहाँ यह भी कहा गया १. जहाँ भी स्त्रियोंकी निन्दा की गयी है वह प्रायः पुरुष ग्रन्थकारोंके द्वारा की गयी है। ये ग्रन्थकार प्रायः साधुसंघके अधिनायक रहे हैं। इससे अपने साधुसंघको स्वीकृत संयममें स्थिर रखनेका उनका परम कर्तव्य था। इसो सद्भावनासे प्रेरित होकर उन्होंने संघस्थ साधुओंको ब्रह्मचर्य महाव्रतमें स्थिर रखनेके लिए स्त्रियोंके सत्-असत् दोषोंको दिखलाकर उनकी ओरसे एक मात्र विमुख रखनेका प्रयत्न किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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