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________________ ३२८ ज्ञानाणवः [१८.९४986 ) क्व मानो नाम संसारे जन्तुव्रजविडम्बके । यत्र प्राणी नृपो भृत्वा विष्ठामध्ये कृमिर्भवेत् ॥९४ 987 ) [मुष्णाति यः कृतसमस्तसमीहितार्थ संजीवनं विनयजीवितमङ्गभाजाम् । जात्यादिमानविषयं विषमं विकारं तं मार्दवामृतरसेन नयस्व शान्तिम् ॥९४*१ 988 ) औचित्याचरणं विलुम्पति पयोवाहं नभस्वानिव प्रध्वंसं विनयं नयत्यहिरिव प्राणस्पृशां जीवितम् । कीर्तिं कैरविणीं मतङ्गज इव प्रोन्मूलयत्यञ्जसा मानो नीच इवोपकारनिकरं हन्ति त्रिवर्ग नृणाम् ॥९४*२ ] मानम् । 986 ) का मानः-नामेति कोमलामन्त्रणे। संसारे क्व मानः। न क्वापीति । कीदशे संसारे । जन्तुव्रजविडम्बके जोवसमूहविडम्बनकर्तरि । यत्र संसारे प्राणी नृपो भूत्वा राजा भूत्वा विष्ठामध्ये कृमि: कोटविशेषो भवेदिति सूत्रार्थः ।।९४॥ [अथ मानस्यानिष्टतामाह। 987 ) मुष्णाति यः-तं मानं शान्ति नयस्व । कीदृशम् । जात्यादिविषयकम् । किमर्थम् । यः कृतसमस्त समोहितार्थं संपादितसमस्ताभीष्टवस्तुजातं मुष्णाति चोरयति । पुनः कीदृशम् । विषमम् अनर्थकारिणम् । केन। मार्दवामृतरसेन मार्दवं विनयः स एव अमृत रसा, तेन । अन्यत्सुगमम् ॥९४*। पुनस्तदेवोपमया आह। 983 ) औचित्याचरणं-यथा नभस्वान् वायुः पयोवाहं मेघं विलुम्पति तथा मानः औचित्याचरणं विलुम्पति । यथा वा अहिः सपः प्राणस्पृशां प्राणिनां जीवितं प्रध्वंसं नयति तथा मानो विनयम् । यथा वा मतङ्गजः मत्तहस्ती कैरविणों नलिनोम प्रोन्मूलयति उत्पाटयति तथा मानः कीर्तिम् । यथा वा नीचः उपकारनिकरं उपकृतसमूहं हन्ति तथा अयं मानः नृणां त्रिवर्ग धर्मार्थकामस्वरूपं नाशयतीत्यर्थः॥९४*२।। ] मानम् । अथ मानानन्तरं मायास्वरूपमाह । प्राणिसमूहको तिरस्कृत करनेवाले जिस संसार में प्राणी राजा होकर मलके मध्यमें क्षुद्र कीड़ा उत्पन्न हो सकता है उस संसार में भला मान कहाँ और किसका रह सकता है ? तात्पर्य यह कि संसार में जब धन-सम्पत्ति एवं शरीर-सौन्दर्य आदि सब ही नश्वर हैं तब उनके आश्रयसे प्राणीका अभिमान करना उचित नहीं हैं ॥९४|| जो मान प्राणियोंके समस्त ईप्सित साध्य करनेवाले नम्रताको चुरा लेता है, ऐसा जात्यादिरूप मान, जो कि अनिष्ट विकार है, उसे मृदुतारूप अमृतसे नष्ट कर ॥९४२१॥ वायु जैसे अम्बुदको वैसे जो मान योग्य आचरणको नष्ट करता है, सर्प जैसे प्राणियोंका जीवित वैसे जो नम्रताको नष्ट करता है, मदमस्त हाथी जैसे कमलकी लताको वैसे जो झटसे मानवोंकी कीर्तिको उखाड़ता है तथा नीच जैसे उपकारोंका वैसे जो मानवोंके त्रिवर्गका नाश करता है ।।९४२२।। १. F Y विडम्बिते । २. Only in X । ३. M मानः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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